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[ पैतीसवाँ वेदनापद]
[२१७ इनमें वे नारक बहुत हैं, जो शीतवेदना वेदते हैं तथा वे नारक अल्प हैं, जो उष्णवेदना वेदते हैं।
[५] तमाए तमतमाए य सीयं वेदणं वेदेति, णो उसिणं वेदणं वेदेति, णो सीओसिणं वेदणं वेदेति।
[२०५७-५] तमा और तमस्तमा पृथ्वी के नारक शीतवेदना वेदते हैं, किन्तु उष्णवेदना तथा शीतोष्णवेदना नहीं वेदते।
२०५८. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! सीयं पि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं वेदेति, सीतोसिणं पि वेदणं वेदेति। [२०५८ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के विषय में (पूर्ववत्) वेदना वेदन सम्बन्धी प्रश्न है । [२०५८ उ.] गौतम! वे शीतवेदना भी वेदते हैं, उष्णवेदना भी वेदते हैं और शीतोष्णवेदना भी वेदते हैं। २०५९. एवं जाव वेमाणिया। [२०५९] इसी प्रकार वैमानिकों तक (कहना चाहिए)।
विवेचन - शीतादि त्रिविध वेदना और उनका अनुभव - वेदना एक प्रकार की अनुभूति है, वह तीन प्रकार की है - शीत, उष्ण और शीतोष्ण । शीतल पुद्गलों के सम्पर्क से होने वाली वेदना शीतवेदना, उष्ण पुद्गलों के संयोग से होने वाली वेदना उष्णवेदना और शीतोष्ण पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होने वाली वेदना शीतोष्णवेदना कहलाती हैं। सामान्यतया नारक शीत या उष्ण वेदना का अनुभव करते हैं किन्तु शीतोष्णवेदना का अनुभव नहीं करते। प्रारम्भ की तीन नरकपृथ्वियों के नारक उष्णवेदना वेदते हैं, क्योंकि उनके आधारभूत नारकावास खैर के अंगारों के समान अत्यन्त लाल, अतिसंतप्त एवं अत्यन्त उष्ण पुद्गलों के बने हुए हैं। चौथी पंकप्रभापृथ्वी में कोई नारक उष्णवेदना और कोई शीतवेदना का अनुभव करते हैं, क्योकि वहाँ के कोई नारकवास शीत और कोई उष्ण होते हैं। इसलिए वहाँ उष्णवेदना अनुभव करने वाले नारक अत्यधिक हैं, क्योंकि उष्णवेदना बहुत अधिक नारकवासों में होती है, जबकि शीतवेदना वाले नारक अत्यल्प हैं, क्योंकि थोड़े-से नारकावासों में ही शीतवेदना होती हैं। धूमप्रभापृथ्वी में कोई नारक शीतवेदना और कोई उष्णवेदना का अनुभव करते हैं, किन्तु वहाँ शीतवेदना वाले नारक अत्यधिक हैं और उष्णवेदना वाले नारक स्वल्प हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक नारकावासों में शीतवेदना ही रहती हैं, उष्णवेदना वाले नारक स्वल्प हैं, उष्णवेदना वाले नारकावास बहुत ही कम हैं। छठी और सातवीं नरकपृथ्वियों में नारक शीतवेदना का ही अनुभव करते हैं, क्योंकि वहाँ के सभी नारक उष्ण स्वभाव वाले हैं और नारकावास हैं अत्यधिक शीतल ।
असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक शीत आदि तीनों ही प्रकार की वेदना वेदते हैं। तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देव शीतल जल से पूर्ण महाहद आदि में जब जलक्रीडा आदि करते हैं, तब शीतवेदना वेदते हैं। जब कोई महर्द्धिक देव क्रोध के वशीभूत होकर अत्यन्त विकराल भ्रुकुटि चढ़ा लेता है या मानो प्रज्वलित करता हुआ देख कर मन ही मन संतप्त होता हैं, तब उष्णवेदना १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८८५-८८६
(ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, अ. रा.कोष. भाग ६, पृ. १४३८-३९