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[चौतीसवाँ परिचारणापद]
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[२०४४] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (जानना चाहिए।) २०४५. वाणमंतर-जोतिसिया जहा णेरइया (सु. २०४०)। [२०४५] वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों का कथन नैरयिकों के समान (समझना चाहिए।) २०४६. वेमाणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति १ अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति २।
से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण . पासंति आहारेंति?
गोयमा! वेमाणिया दविहा पण्णत्ता.तं जहा-माइमिच्छद्दिविउववण्णगाय अमाइसम्मबिटिउववण्णगा य, एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे भणियं (सु. ९९८) तहा भाणियव्वं जाव से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चति०।
[२०४६ प्र.] भगवन् ! वैमानिक देव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उनको जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं? अथवा वे न जानते हैं, न देखते हैं और आहार करते हैं ?
__ [२०४६ उ.] गौतम ! (१) कई वैमानिक जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं और (२) कई न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि (१) कई वैमानिक (आहार्यमाण पुद्गलों को) जानतेदेखते हैं और आहार करते हैं और (२) कई वैमानिक उन्हें न तो जानते हैं, न देखते हैं किन्तु आहार करते हैं?
[उ.] गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-मायोमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टिउपपन्नक। इस प्रकार जैसे (सू. ९९८ में उक्त) प्रथम इन्द्रिय - उद्देशक में कहा है, वैसे ही यहाँ सब-'इस कारण से है गौतम ! ऐसा कहा गया है', यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन-चौबीसदण्डकवर्ती जीवों द्वारा आहार्यमाण पुद्गलों के जानने-देखने पर - यहाँ विचार किया गया है। नीचे एक तालिका दी जा रही है, जिससे आसानी से जाना जा सके१. नैरयिक
जानते हैं, देख र करते हैं नहीं जानते, न देखते आहार करते हैं भवनवासी वाणव्यन्तर ज्योतिष्क
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय २. चतुरिन्द्रिय जीव
(१) कई जानते, देखते, आहार करते हैं। (२) कई जानते हैं, देखते नहीं,