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________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [११५ द्वारा किया जाने वाला आहार लोमाहार कहलाता है। प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार, मुख में डाल (प्रक्षिप्त) कर या कोर (ग्रास) के रूप में मुख द्वारा किया जाने वाल आहार प्रक्षेपाहार है। वर्षा आदि के मौसम में ओघरूप से पुद्गलों का शरीर में प्रवेश हो जाता है, जिसका अनुमान मूत्र आदि से किया जाता है, वह लोमाहार है। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव लोमाहार के रूप मे जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ,उन सबका पूर्णरूप से आहार करते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही वैसा होता है। तथा जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार कर पाते हैं। उनमें से बहुत से सहस्रभाग उनके द्वारा बिना स्पर्श किये बिना आस्वादन किये यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई पुद्गल अतिस्थूल होने के कारण और कोई अतिसूक्ष्म होने के कारण आहृत नहीं हो पाते। आहार्य पुद्गलों का अल्प-बहुत्व - प्रक्षेपाहार रूप से ग्रहण किये जानेवाले पुद्गलों में सबसे कम पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं, आशय यह है कि एक - एक स्पर्शयोग्य भाग में अनन्तवाँ भाग आस्वाद के योग्य होता है और उसका भी अनन्तवाँ भाग आघ्राण-(सूंघने के) योग्य होता है। अत:सबसे कम अनाघ्रायमाण पुद्गल होते हैं। उनसे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल अस्पृश्यमान होते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों एवं बाणव्यन्तरों में आहारार्थी आदि सात द्वार १८२४. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया। णवरं तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति। [१२४] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिवर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से (अर्थात् दो दिन छोड़कर) उत्पन्न होती है। १८२५. पंचेंदियातिरिक्खजोणिया णं भंते। जे पोग्गले आहारत्ताए० पुच्छा ! गोयमा! सोइंदिय-चविखंदिय-घाणिंदिय-जिब्भिदिय-फासेंदियवेमायत्ताएभुजो २ परिणमंति। [१८२५ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनःपुनः परिजत होते हैं ? [१८२५ उ.] गौतम! आहाररूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। १८२६. मणूसा एवं चेव। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ। __ [१८२६] मनुष्यों की आहार सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। विशेष यह है कि उनकी आभोगनिर्वर्तितआहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में होती है और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (तीन दिन काल व्यतीत) होने पर उत्पन्न होती है। १ व २ प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ५८४
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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