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________________ १९२] [प्रज्ञापनासूत्र] अवधि को परमावधि या सर्वावधि कहते हैं। सर्वजघन्य अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा के अपान्तरालवर्ती द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग को, काल की अपेक्षा अवलिका के असंख्यातवें भाग अतीत और अनागत काल को जानता है। यद्यपि अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है, इसलिए क्षेत्र और काल अमूर्त होने के कारण उनको साक्षात् ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वे अरूपी हैं, तथापि उपचार से क्षेत्र और काल में जो रूपी द्रव्य होते हैं, उन्हें जानता है तथा भाव से अनन्त पर्यायों को जानता है। द्रव्य अनन्त होते हैं, अतः कम-से-कम प्रत्येक द्रव्य के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप चार पर्यायों को जानता है। यह हुआ सर्वजघन्य अवधिज्ञान । इससे आगे पुनः प्रदेशों की वृद्धि से, पर्यायों की वृद्धि से बढ़ता हुआ अवधिज्ञान मध्यम कहलाता है। जब तक सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान न हो जाए, तब तक मध्यम का ही रूप समझना चाहिए। सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा समस्त रूपी द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात अतीत और अनागत उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों को जानता है तथा भाव की अपेक्षा अनन्त पर्यायों को जानता है, क्योंकि वह प्रत्येक द्रव्य की संख्यात-असंख्यात पर्यायों को जानता है। छठा-सातवाँ अवधि-क्षय-वृद्धि आदि द्वार २०२७. णेरइयाणं भंते ! ओही किं आणुगामिए अणाणुगामिए बड्ढमाणए हायमाणए पडिवाई अपडिवाई अवट्ठिए अणवट्ठिए? गोयमा! आणुगामिए, णो अणाणुगामिए जो वड्ढमाणए णो हायमाणए णो पडिवाई, अपडिवादी अवट्ठिए, णो अणवट्ठिए। [२०२७ प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधि (ज्ञान) क्या आनुगामिक होता है, अनानुगामिक होता है, वर्द्धमान होता है, हीयमान होता है, प्रतिपाती होता है, अप्रतिपाती होता है, अवस्थित होता है, अथवा अनवस्थित होता है ? [२०२७ उ.] गौतम! वह आनुगामिक है, किन्तु अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अनवस्थित नहीं होता, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है। २०२८. एवं जाव थणियकुमाराणं। [२०२८] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक के विषय में जानना चाहिए। २०२९. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! आणुगामिए वि जाव अणवट्ठिए वि। [२०२९ प्र.] भगवन्! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अवधि (ज्ञान) आनुगामिक होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है। [२०२९ उ.] गौतम! वह आनुगामिक भी होता है, यावत् अनवस्थित भी होता है। २०३०. एवं मणूसाण वि। __ [२०३०] इसी प्रकार मनुष्यों के अवधिज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए । १. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७७६ से ७७७ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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