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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
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णं इच्छामणे समुप्पज्जइ इच्छामो णं मणभक्खं करित्तए तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणामा ते तेसिं मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहाणामए सीता पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवइत्ताणं चिट्ठेति । एवामेव तेहिं देवेहिं मणभक्खणे कते समाणे गोयमा ! से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति ।
[१८६४] असुरकुमारों से वैमानिकों तक सभी ( प्रकार के) देव ओज- आहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी । देवों में जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको इच्छामन (अर्थात् मन में आहार करने की इच्छा) उत्पन्न होती है। जैसे कि वे चाहते हैं कि हम मनो- (मन में चिन्तित वस्तु का) भक्षण करें! तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की इच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त (कमनीय), यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में परिणत हो जाते है। (यथा • मन से अमुक वस्तु के भक्षण की इच्छा के) तदनन्तर जिस किसी नाम वाले शीत (ठंडे) पुद्गल, शीतस्वभाव को प्राप्त होकर रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल, उष्णस्वभाव को पाकर रहते हैं। गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर, उनका इच्छाप्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट तृप्त हो
जाता है।
॥ पण्णवणाए भगवतीए आहारपदे पढमो उद्देसओ समत्तो ॥
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विवेचन ओज-आहारी का अर्थ उत्पत्ति प्रदेश में आहार के योग्य पुद्गलों का जो वह ओज कहलाता है। मन में उत्पन्न इच्छा से आहार करने वाले मनोभक्षी कहलाते हैं।
समूह
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होता है,
निष्कर्ष – जितने भी औदारिकशरीरी जीव हैं, वे सब तथा नारक ओज-आहारी होते हैं, तथा वैक्रियशरीरी जीवों में चारों जाति के देव मनोभक्षी भी होते तथा ओज-आहारी भी होते हैं। मनोभक्षी देवों का स्वरूप इस प्रकार
है कि वे विशेष प्रकार की शक्ति से मन में शरीर को पुष्टिकर, सुखद, अनुकूल एवं रुचिकर जिन आहार्य - पुद्गलों के आहार की इच्छा करते हैं, तदनुरूप आहार प्राप्त हो जाता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात् वे परम संतोष एवं तृप्ति का अनुभव करते हैं। नारकों को ऐसा आहार प्राप्त नहीं होता, क्योंकि प्रतिकूल अशुभकर्मों का उदय होने से उनमें वैसी शक्ति नहीं होती।
सूत्रकृतांगनिर्युक्ति गाथाओं का अर्थ ओजाहार शरीर के द्वारा होता है, रोमाहार त्वचा (चमड़ी) द्वारा होता है और प्रक्षेपाहार कवल (कौर) करके किया जाने वाला होता है ॥ १ ॥ सभी अपर्याप्त जीव ओज-आहार करते हैं, पर्याप्त जीवों के तो रोमाहार और प्रक्षेपाहार (कवलाहार) की भजना होती है ॥ २ ॥ एकेन्द्रिय जीवों, नारकों और देवों के प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नहीं होता, शेष सब संसारी जीवों के कवलाहार होता है ॥ ३ ॥ एकेन्द्रिय और नारकजीव तथा असुरकुमार आदि का गण रोमाहारी होता है, शेष जीवों का आहार रोमाहार एवं