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[प्रज्ञापनासूत्र] [१९२५] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों (के साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग) का कथन (सू. १९१२-१४ में उक्त)नैरयिकों के समान करना चाहिए।
१९२६. मणुस्साणं जहा ओहिए उवओगे भणियं (सु. १९०८-१०) तहेव भाणियव्वं। ___ [१९२६] मनुष्यों के उपयोग (सू. १९०८-१० में उक्त) समुच्चय (औधिक) उपयोग के समान कहना चाहिए।
१९२७. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. १६१२-१४)
[१९२६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के साकारोपयोग-अनाकारोपयोग-सम्बन्धी कथन (सू. १९१२-१४ में उक्त) नैरयिकों के समान (करना चाहिए।)
विवेचन - उपयोग : स्वरूप और प्रकार - जीव के द्वारा वस्तु के परिच्छेदज्ञान के लिए जिसका उपयोजन-व्यापार किया जाता है, उसे उपयोग कहते हैं । वस्तुतः उपयोग जीव का बोधरूप धर्म या व्यापार है। इसके दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। नियत पदार्थ को अथवा पदार्थ के विशेष धर्म को ग्रहण करना आकार है। जो आकार-सहित हो, वह साकार है। अर्थात्-विशेषग्राही ज्ञान को साकारोपयोग कहते हैं। आशय यह है कि आत्मा जब सचेतन या अचेतन वस्तु में उपयोग लगाता हुआ पर्यायसहित वस्तु को ग्रहण करता है, तब उसका उपयोग साकारोपयोग कहलाता है। काल की दृष्टि से छद्मस्थों का उपयोग अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और केवलियों का एक समय तक ही रहता है । जिस उपयोग में पूर्वोक्तरूप आकार विद्यमान न हो, वह अनाकारोपयोग कहलाता है। वस्तु का सामान्यरूप से परिच्छेद करना-सत्तामात्र को ही जानना अनाकारोपयोग है। अनाकारोपयोग भी छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त कालिक है। परन्तु अनाकारोपयोग के काल से साकारोपयोग का काल संख्यातगुणा जानना चाहिए क्योंकि विशेष का ग्राहक होने से उसमें अधिक समय लगता है। केवलियों के अनाकारोपयोग का काल तो एक ही समय का होता है।
पृष्ठ १५९ पर दी तालिका से जीवों में साकारोपयोग-अनाकारोपयोग की जानकारी सुगमता से हो जाएगी। जीवों आदि में साकारोपयुक्तता-अनाकारोपयुक्तता-निरूपण
१९२८. जीवा णं भंते! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ जीवा सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि?
गोयमा! जे णं जीवा आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाण-मण-केवल-मतिअण्णाणसुयअण्णाण-विभंगणाणोवउत्ता ते णं जीवा सागारोवउत्ता, जे णं जीवा चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण
ओहिदसण-केवलदंसणोवउत्ता ते णं जीवा अणागारोवउत्ता, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जीवा सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. को. भा. २, ८६०-६२