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[छत्तीसवाँ समुद्घातपद]
[२७३ [२१५६-१ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से पृथक् करता (बाहर निकलता) है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (निरन्तर व्याप्त) होता है?
[२१५६-१ उ.] गौतम ! विस्तार और बाहल्य (मोटाई) की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई (आयाम) में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग क्षेत्र तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और व्याप्त (स्पृष्ट) होता है। इतना क्षेत्र आपूर्ण होता है तथा इतना क्षेत्र (व्याप्त) होता है।
[२] से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ?
गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया।
[२१५६-२ प्र.] भगवन् ! वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा कितने काल में स्पृष्ट होता है ?
[२१५६-२] गौतम ! वह (उत्कृष्ट असंख्यातयोजन लम्बा क्षेत्र) एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय के विग्रह से इतने काल में (उन पुद्गलों से) आपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है।
तत्पश्चात् शेष वही (पूर्वोक्त पांच तथ्यों से युक्त) कथन (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और) कदाचित् पांच क्रियाएं लगती हैं; (यहां तक करना चाहिए।).
२१५७. एवं णेरइए वि। णवरं आयामेणं जहण्णेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं उक्कोसेणं असंखेजाइं जोयणाई एगदिसिं एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे; विग्गहेणं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा, णवरं चउसमइएण ण भण्णति। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि।
[२१५७] समुच्चय जीव के समान नैरयिक की भी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में उक्त पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से (उस क्षेत्र का आपूर्ण और व्याप्त होना) कहना चाहिए, चार समय के विग्रह से नहीं कहना चाहिए।
तत्पश्चात् शेष वही (पूर्वोक्त पाँच तथ्यों से युक्त) कथन (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और) कदाचित् पांच क्रियाएं होती हैं यहाँ तक करना चाहिए।
२१५८. [१] असुरकुमारस्स जहा जीवपए (सु. २१५६)। णवरं विग्गहो तिसमइओ जहा णेरइयस्स (सु. २१५७)। सेसं तं चेव।
[२१५८-१] असुरकुमार की वक्तव्यता भी (सू. २१५६ में समुच्चय) जीवपद के मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए। विशेष यह है कि असुरकुमार का विग्रह (सू. २१५७ में उक्त) नारक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् है। _[२] जहा असुरकुमारे एवं जाव वेमाणिए। णवरं एगिदिए जहा जीवे णिरवसेसं।