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________________ ८०] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ललेश्यावाली हो, तत्प्रयोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाली हो, हे गौतम! इस प्रकार की मनुष्य- स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधती है। १७५३. अंतराइयं जहा णाणावरणिज्जं ( १७४५-४७ ) । [ १७५३] उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में (सू. १७४५-४७ में उक्त) ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए। [ बीओ उद्देसओ समत्तो ] ॥ पण्णवणाए भगवतीए तेवीसइमं कम्मे त्ति पदं समत्तं ॥ - विवेचन – निष्कर्ष – आयुकर्म को छोडकर शेष सातों उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों को पूर्वोक्त विशेषता वाले नारक, तिर्यञ्च तिर्यञ्चनी, मनुष्य, मानुषी, देव या देवी बांधती है । उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्कर्म को तिर्यञ्च, मनुष्य और मानुषी बांधती है, किन्तु नारक, तिर्यञ्चिनी, देव और देवी नहीं बांधती, क्योंकि इन चारों के उत्कृष्ट आयुकर्म का बन्ध नहीं होता । कठिन शब्दार्थ - कम्मभूमिगपलिभागी – जो कर्मभूमि में जन्मे हुए के समान हो । अर्थात् कर्मभूमिजा गर्भिणी तिर्यञ्चनी का अपहरण करके किसी ने यौगलिक क्षेत्र में रख दिया हो और उससे जो जन्मा हो ऐसा तिर्यञ्च । सागारे – साकारोपयोग वाला। सुतोवउत्ते - श्रुत (शास्त्र) में उपयोग वाला। सुक्कलेस्से - शुक्ललेश्यी । तप्पाउग्गविसुज्झमाण-परिणामे – उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला हो। ॥ दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद सम्पूर्ण ॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ३८३ - ३८४ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ४५९ से ४५६ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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