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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
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[३] एवं एते एगत्त- पोहत्तिया सोलस दंडगा ।
[१६७८-३] इस प्रकार एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं।
विवचेन - समुच्चयजीव द्वारा किन कर्मों का वेदन होता है, किनका नहीं ? जिस जीव के घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वह ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का वेदन करता है, किन्तु जिसने घातिकर्मों का क्षय कर डाला है, वह इन चारों कर्मों का वेदन नहीं करता है। मनुष्य को छोड़कर नैरयिक से लेकर वैमानिक तक कोई भी जीव घातिकर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते, इसलिए वे ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का वेदन करते हैं, मनुष्यों में जिनके चार घातिकर्मों का क्षय हो चुका है, वे ज्ञानावरणीयादि चार कर्मों का वेदन नहीं करते, और जिनके चार घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वे उनका वेदन करते हैं । किन्तु वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मों का शेष जीवों की तरह मनुष्य भी वेदन करता है, क्योंकि ये चार अघातिकर्म मनुष्य में चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक बने रहते हैं । समुच्चय जीवों के कथन की अपेक्षा से संसारीजीव इन चार अघातिकर्मों का वेदन करते हैं, किन्तु मुक्त जीव वेदन नहीं करते।
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पंचमद्वार: कतिविध - अनुभावद्वार
१६७९. णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्ध- फास - पुट्ठस्स संचितस्स चियस्स उवचितस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं णिव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्स गतिं पप्प ठितिं पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते ?
गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावेपण्णत्ते । तं जहा सोयावरणे १ सोयविण्णाणावरणे २ णेत्तावरणे ३ णेत्तविण्णाणावरणे ४ घाणावरणे ५ घाणविण्णाणावरणे ६ रसावरणे ७ रसविण्णाणावरणे ८ फासावरणे ९ फासविण्णाणावरणे १० जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसिं वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे विण याणइ, जाणित्ता विण याणइ, उच्छण्णणाणी यावि भवइ णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं । एस णं गोयमा ! णाणावरणिजे कम्मे । एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते १ ।
[१६७९ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध (बांधे गये), स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, संचित, चित्त और उपचित किये हुए, किञ्चित् पाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदय प्राप्त, जीव के द्वारा कृत, जीव के द्वारा निष्पादित, जीव के द्वारा परिणामित, स्वयं के द्वारा उदीर्ण ( उदय को प्राप्त), दूसरे के द्वारा उदीरित (उदीरणा - प्राप्त) या दोनों के द्वारा उदीरणा प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को प्राप्त करके, स्थिति को प्राप्त करके, भव को, पुद्गल को तथा पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है ?
[ १६७९ उ.] गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल - परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का १. (क) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. १७५-७६ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, पृ. १३१