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[ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ]
यथा
[ १६८५-२ उ.] गौतम ! पूर्ववत् ( नीचगोत्र का अनुभाव भी उतने ही प्रकार का है, परन्तु वह विपरीत है ) जातित्रिहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता। पुद्गलों का, अथवा पुद्गल परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उन्हीं के उदय से नीचगोत्रकर्म का वेदन किया जाता है। ॥ ७ ॥
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१६८६. अंतराइस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं ० पुच्छा ।
गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते । तं जहा दाणंतराए १ लाभंतराए २ भोगंतराए ३ उवभोगंतराए ४ वीरियंतराए ५ । जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा जाव वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं वा, तेसि वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेति । एस णं गोयमा ! अंतराइए कम्मे । एस णं गोयमा ! जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते ८ ।
[१६८६ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा।
[ १६८६ उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा— (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, और (५) वीर्यान्तराय ।
पुद्गल का या पुद्गलों का अथवा पुद्गल - परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से जो अन्तरायकर्म को वेदा जाता है। यही है गौतम ! वह अन्तरायकर्म, जिसका हे गौतम ? पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है ॥ ८ ॥
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`बद्ध-राग-द्वेष-परिणामों के वशीभूत होकर बांधा अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त ।
॥ तकम्म पगडिपदे पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ विवेचन बद्ध, पुट्ठ आदि पदों के विशेषार्थ गया, अर्थात् – कर्मरूप में परिणत किया गया। पुट्ठ-स्पृष्ट बद्धफासपुट्ठ-बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट- पुनः प्रगाढ़रूप में बद्ध तथा अत्यन्त स्पर्श से स्पृष्ट, अर्थात् आवेष्टन, परिवेष्टनरूप से अत्यन्त गाढतर बद्ध। संचित – जो संचित है, अर्थात् - अबाधाकाल के पश्चात् वेदन के योग्य रूप में निषिक्त किया गया है। चित जो चय को प्राप्त हुआ है, अर्थात् उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेशहानि और रसवृद्धि करके स्थापित किया गया है। उपचित- अर्थात् जो समानजातीय अन्य प्रकृतियों के दलिको में संक्रमण करके उपचय को प्राप्त है। विवागपत्त – जो विपाक को प्राप्त हुआ है अर्थात् विशेष फल देने को अभिमुख हुआ है। आवागपत्त - आपाकप्राप्त, अर्थात् जो थोड़ा सा फल देने को अभिमुख हुआ है। फलपत्त फलप्राप्त अर्थात् अतएव जो फल - उदय प्राप्त जो सामग्री वशात् उदय को प्राप्त हुआ है। जीवेणं कडस्स कर्मबन्धन बद्धजीव के द्वारा कृत । आशय यह है कि जीव उपयोग स्वभाव वाला होने से रागादि परिणाम से युक्त होता है, अन्य नहीं । रागादि परिणाम से युक्त होकर वह कर्मोपार्जन करता है तथा रागादि परिणाम भी कर्मबन्धन से बद्ध जीव के ही होता है, कर्मबन्धनमुक्त सिद्धजीव के नहीं । अतः जीव के द्वारा कृत का भावार्थ है - कर्मबन्धन से बद्ध जीव के द्वारा उपार्जित । कहा भी है।
देने को अभिमुख हुआ है। उदयपत्तजीव के
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