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________________ १३०] १८७२. भवसिद्धया णं भंते! जीव कि आहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] [१८७२ प्र.] भगवन् ! (बहुत) भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [१८७२ उ.] गौतम! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (इस विषय में) तीन भंग कहने चाहिए। १८७३. अभवसिद्धए वि एवं चेव । [१८७३] अभवसिद्धिक के विषय में भी इसी प्रकार (भवसिद्धिक के समान) कहना चाहिए। १८७४. [ १ ] णोभवसिद्धिए - णोअभवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! णो आहारए, अणाहारए । [१८७४ -१ प्र.] भगवन् ! नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [१८७४ - १ उ.] गौतम ! वह आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। [२] एवं सिद्धे वि । [१८७४ -२] इसी प्रकार सिद्ध जीव के विषय में कहना चाहिए । १८७५. [ १ ] णोभवसिद्धिया-णोअभवसिद्धिया णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! णो आहारगा, अणाहारगा । [१८७५-१ प्र.] भगवन्! (बहुत-से ) नो-भवसिद्धिक-नो- अभवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारकं ? [१८७५ - १ उ. ] गौतम ! वे आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं। [२] एवं सिद्धा वि । दारं २ ॥ [१८७५ - २] इसी प्रकार बहुत-से सिद्धों के विषय में समझ लेना चाहिए। [ द्वितीय द्वार ] विवेचन - भवसिद्धिक कब आहारक, कब अनाहारक ? - भवसिद्धिक अर्थात् - भव्यजीव विग्रहगति आदि अवस्था में अनाहारक होता है और शेष समय में आहारक । भवसिद्धिक समुच्चय जीव की तरह भवसिद्धिक भवनपति आदि चारों जाति के देव, मनुष्य, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि सभी जीव (सिद्ध को छोड़कर) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होते हैं ।" बहुत्वविशिष्ट भवसिद्धिक जीव के तीन भंग : क्यों और कैसे ? - आहारकद्वार के समान समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ शेष नारक आदि बहुत्वविशिष्ट सभी जीवों में उक्त के समान तीन भंग होते हैं । अभवसिद्धिक और भवसिद्धिक: लक्षण एवं आहारकता - अनाहारकता अभवसिद्धिक वह हैं, जो मोक्षगमन के योग्य न हों। भवसिद्धिक वे जीव हैं, जो संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त भवों के पश्चात् कभी न कभी सिद्धि प्राप्त करेंगे। भवसिद्धिक की भाँति अभवसिद्धिक के विषय में भी आहरकत्व - अनाहारकत्व का १. अभि. रा. कोष भा. २, पृ. ५१० -
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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