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समान ज्ञान क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यही है कि आत्मा वस्तुतः ज्ञानमय है, किन्तु उस पर कर्मों का आवरण पड़ा हुआ है और उस आवरण के कारण ही आत्मारूपी सूर्य का ज्ञानगुणरूप प्रकाश कर्मरूपी मेघों से ढंका हुआ है। बादल हटते ही जैसे सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जाता है, वैसे ही कर्मों का आवरण दूर होते ही आत्मा के ज्ञानादि गुण अधिकाधिक प्रकट होने लगते हैं। इस पर से एक प्रश्न फिर समुद्भूत होता है कि कर्म बलवान् है या आत्मा? बाह्यदृष्टि से कर्म शक्तिशाली प्रतीत होते हैं, क्योंकि कर्म के वशवर्ती होकर आत्मा नाना योनियों में जन्म-मरण के चक्कर काटती रहती है, परन्तु अन्तर्दृष्टि से देखा जाए तो आत्मा की शक्ति असीम (अनन्त) है । वह जैसे अपनी परिणति से कर्मों का आस्रव एवं बन्ध करती है, वैसे ही कर्मों का क्षय करने की क्षमता भी रखती है। कर्म चाहे जितने शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हों, लेकिन आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। कठोरतम पाषाणों की चट्टानों को मुलायम पानी टुकड़े-टुकड़े कर देता है। वैसे ही आत्मा की अनन्त शक्ति कर्मों को चूर-चूर कर देती है। इसके लिए कर्म और आत्मा की पृथक्-पृथक् शक्तियों को पहिचानने के लिए दोनों के लक्षणों को जान लेना आवश्यक है। आत्मा अपने-आप में (निश्चय) रूप में ज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्तिमय (वीर्यमय) है। कर्मों के आवरण के कारण उसके ये गुण दबे हुए हैं। कर्मों का आवरण सर्वथा हटते ही चेतना पूर्णरूप से प्रकट हो जाती है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। कर्म का लक्षण है - मिथ्यात्व आदि पांच कारणे से जीव के द्वारा जो किया जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांचों में से किसी के भी निमित्त से आत्मा में एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आता है, जिसे अन्य दर्शनों में अदृश्य, अविद्या, माया, प्रकृति, संस्कार आदि विविध नामों से पुकारा जाता है, अत: वह कर्म ही हैं, जो राग-द्वेष का निमित्त पकार आत्मा के साथ बंध जाता है और समय पाकर वह (कर्म) सुख-दुःख रूप फल देने लगता है। कर्म के मुख्यतया दो भेद हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म । जीव के साथ राग-द्वेष रूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है तथा वह अचेतन कर्मद्रव्य जब आत्मा के साथ क्षीर-नीरवत् एक होकर सम्बद्ध हो जाता है, तब वह द्रव्यकर्म कहलाता है। यद्यपि जैनदर्शन में भावकर्मबन्ध के मुख्यतया मिथ्यात्वादि पांच कारण एवं संक्षेप में कषाय और योग ये दो कारण बतलाए हैं, तथापि तेईसवें पद के प्रथम उद्देशक में राग और द्वेष को ही भावकर्मबन्ध का कारण बतलाया है। चार कषायों को इन्हीं दो के अन्तर्गत कर दिया गया है। कोई भी मानसिक या वैचारिक प्रवृत्ति हो, या तो वह राग (आसक्तिरूप) या वह द्वेष (घृणा या क्रोधादि) रूप होगी। अतः रागमूलक या द्वेषमूलक प्रवृत्ति को ही भावकर्मबन्ध का कारण माना गया है। प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी राग-द्वेषात्मक वासना के कारण अव्यक्तरूप से भावकर्म द्रव्यकर्म रूप में श्लिष्ट होते रहते हैं। कर्म की बंधकता (कर्मलेप पैदा करने की शक्ति) भी रागद्वेष के सम्बन्ध से ही है। रागद्वेषजनित मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार क्रोधादिकषायवश शारीरिक, वाचिक क्रिया होती है, वही द्रव्यकर्मोपार्जन का कारण बनती है। जो क्रिया कषायजनित होती है, उससे होने वाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है, किन्तु कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल और अल्पस्थितिक होता है। वह थोड़े-से प्रयत्न एवं समय में नष्ट किया जा सकता है। वस्तुतः जब प्राणी मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से तद्योग्य कर्मपुद्गलपरमाणुओं का ग्रहण होता है। इन्हीं गृहीत पुद्गल-परमाणु-समूह का कर्मरूप में आत्मा के साथ बद्ध होना द्रव्यकर्म कहलाता है।