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[ चौवीसवाँ कर्मबन्धपद ]
जीव सूक्ष्मसम्पयगुणस्थानवर्ती हैं, जो मोहनीय और आयु को छोड़कर शेष छह कर्म - प्रकृतियों के बन्धक होते हैं । केवल एक सातावेदनीय कर्मप्रकृति बांधने वाला ग्यारहवें ( उपशान्त - मोहनीय), बारहवें (क्षीण-मोहनीय) और तेरहवें ( सयोगी - केवली) गुणस्थानवर्ती जीव होता है। उस समय वे दो समय की स्थितिवाला सातावेदनीयकर्म बांधते हैं। उनके साम्परायिक बन्ध नहीं होता, क्योंकि उपशान्तकषाय आदि जीवों के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का विच्छेदन सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के चरम समय में ही हो जाता है। (२) नारकादि जीव - नारक जीव ज्ञानावरणीय का बन्ध करता हुआ जब आयुकर्म का बंध करता है, तब आठ कर्मप्रकृतियों का बंधक होता है। नारक जीव में छह कर्मप्रकृतियों के बंध का विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः मनुष्य को छोडकर शेष सभी प्रकार के जीवों (दण्डकों) में पूर्वोक्त दो विकल्प (सात या आठ के बंध के) ही समझने चाहिए, क्योंकि उन्हें सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान प्राप्त न होने से उनमें तीसरा (छह प्रकृतियों के बन्ध का) विकल्प सम्भव नहीं है। मनुष्य का कथन सामान्य जीव के समान है। अर्थात् - मनुष्य में तीनों भंग पाये जाते हैं । ( ३ ) बहुत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव के ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मबन्धन – सभी जीव आयुकर्म बन्ध के अभाव में सात के और उसके बंध के सद्भाव में आठ
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प्रकृतियों के बंधक होते हैं। बहुत्व - विवक्षा में सात या आठ के बंधक तो सदैव बहुसंख्या में पाये जाते हैं, किन्तु छह के बंधक किसी काल- विशेष ही पाये जाते हैं और किसी काल में नहीं पाये जाते, क्योंकि उसका अन्तरकाल छह महिने तक का कहा गया है। जब एक षड्विधबंधक नहीं पाया जात, तब प्रथम भंग होता है, जब एक पाया जाता है तो द्वितीय और जब बहुत षड्विधबंधक जीव पाये जाते हैं, तब तृतीय विकल्प होता है। . वेदनीय कर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण
१७६३. [ १ ] वेयणिज्जं बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधइ ?
गोमा ! सत्तविहबंध वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा ।
[१७६३-१ प्र.] भगवन्! वेदनीयकर्म को बाँधता हुआ एक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ?
[ १७६३-१ उ.] गौतम! सात का, आठ का, छह का अथवा एक प्रकृति का बन्धक होता हैं।
[२] एवं मणूसे वि ।
[१७६३-२] मनुष्य के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहना चाहिए।
[३] सेसा णारगादीया सत्तविहबंधगाा य अट्ठविहबंधगा य जाव वेमाणिए ।
[१७६३-३] शेष नारक आदि सप्तविध और अष्टविध बन्धक होते हैं, वैमानिक तक इसी प्रकार कहना
चाहिए ।
१७६४. जीवा णं भंते! वेयणिज्जं कम्मं० पुच्छा ।