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________________ १४८] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] (४) कदाचित् एक आहारक, बहुत अनाहारक, (५) कदाचित् बहुत आहारक और एक अनाहारक, एवं (६) कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक । नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न में (एकेन्द्रियों एवं समुच्चय जीवों को छोड़कर) तीन भंग पूर्व पूर्ववत् पाये जाते हैं। शरीर-इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास-पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में एकत्व की विवक्षा-से एक भंग – बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। बहुत की अपेक्षा-तीन भंग सम्भव है-(१) समुच्चय जीव और समूछिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं, जब एक भी विग्रहगतिसमापन्न नहीं होता है, तब सभी आहारक होते है, यह प्रथम भंग, (२) जब एक विग्रहगतिसमापन्न होता हैं, तब बहुत आहारक एक अनाहारक यह द्वितीय भंग , (३) जब बहुत जीव विग्रहगतिसमापन्न होते हैं, तब बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह तृतीय भंग है। नारकों, देवों और मनुष्यों में भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त के विषय में बहुत्व की विवक्षा से ६ भंग होते हैं।' वक्तव्यता का अतिदेश-अन्तिम सूत्र में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से विभिन्न जीवों के आहारकअनाहारक सम्बन्धी भंगों का अतिदेश किया गया है। ॥ प्रज्ञापना का अट्ठाईसवाँ पद : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का अट्ठाईसवाँ आहारपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ६८५ से ६८८ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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