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[प्रज्ञापनासूत्र] [२०५२ १ उ.] गौतम! परिचारणा पांच प्रकार की कही गई है। यथा – (१) कायपरिचारणा, (२) स्पर्शपरिचारणा, (३) रूपपरिचारणा, (४) शब्दपरिचारणा और (५) मन:परिचारणा।।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि परिचारणा पांच प्रकार की है, यथा - कायपरिचारणा यावत् मनःपरिचारणा?
[उ.] गौतम! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देव कायपरिचारक होते हैं। सनत् कुमार और माहेन्द्रकल्प में देव स्पर्शपरिचारक होते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में देव रूपपरिचारक होते हैं। महाशुक्र और सहस्रारकल्प में देव शब्द-परिचारक होते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प में देव मन:परिचारक होते हैं। नौ ग्रैवेयकों के और पांच अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं । हे गौतम ! इसी कारण से कहा गया है कि यावत् आनत आदि कल्पों के देव मन:परिचारक होते हैं।
[२] तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसिंणं इच्छामणे समुप्पज्जइ - इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे ख्रिप्पामेव ताओ अच्छराओ ओरालाई सिंगाराइं मणुण्णाई मणोहराई उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता तेसिं देवाणं अंतियं पादुब्भवंति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेंति, से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवतित्ता णं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति एवामेव तेहिं देवेहिं ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणे कते समाणे से इच्छामणे खिप्पमेवावेति ।
अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं सुक्कपोग्गला? हंता अत्थि। तेणं भंते तासिं अच्छाराणं कीसत्ताए भुज्जो २ परिणमंति ?
गोयमा! सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिंदियत्ताए रसिंदियत्तााए फासिंदियत्ताए इट्ठताए कंतत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्ग-रूव-जोव्वण-गुणलावण्णत्ताए ते तासिं भुजो भुजो परिणमंति।
[२०५२-२] उनमें से कायपरिचारक (शरीर से विषयभोग सेवन करने वाले) जो देव हैं, उनके मन में (ऐसी) इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार (मैथुन) करना चाहते हैं। उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएँ उदार आभूषणादियुक्त (शृंगारयुक्त), मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया से बनाती हैं। इस प्रकार विक्रिया करके वे उन देवों के पास आती हैं। तब वे देव उन अप्सराओं के साथ कायपरिचारणा (शरीर से मैथुन सेवन) करते हैं। जैसे शीत पुद्गल शीतयोनि वाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत-अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्णअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, इसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सराओं के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका इच्छामन (इच्छाप्रधान) शीघ्र ही हट जाता – तृप्त हो जाता है।
१. 'काय-प्रवीचारा आ ऐशानात् ।'
'शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः।'
- तत्त्वार्थ. अ. ४, सू. ८-९