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[तीसवाँ पश्यत्तापद]
[१६९ उत्तर का स्पष्टीकरण - उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर 'ना' में है क्योंकि केवली भगवान् का ज्ञान साकार अर्थात् विशेष का ग्राहक होता है, जबकि उनका दर्शन अनाकार अर्थात् सामान्य का ग्राहक होता है। अतएव केवली भगवान् जब ज्ञान के द्वारा विशेष का परिच्छेद करते हैं, तब जानते हैं, ऐसा कहा जाता है और जब दर्शन के द्वारा अनाकार यानी सामान्य को ग्रहण करते हैं, तब देखते हैं, ऐसा कहा जाता है। सविशेषं पुनर्ज्ञानम् इस लक्षण के अनुसार वस्तु का विशेषयुक्त बोध या विशेषग्राहक बोध ही ज्ञान होता है। अतः केवली का ज्ञान साकार यानी विशेष का ही ग्राहक होता है, अन्यथा उसे ज्ञान ही नहीं कहा जा सकता और दर्शन अनाकार यानी सामान्य का ही ग्राहक होता है, क्योंकि दर्शन का लक्षण ही है - ‘पदार्थों को विशेषरहित ग्रहण करना।'
अतः सिद्धान्त यह है कि जब ज्ञान होता है, तब ज्ञान ही होता है और जब दर्शन होता है, तब दर्शन ही होता है। ज्ञान और दर्शन छाया और आतप (धूप) के समान साकाररूप एवं अनाकाररूप होने से परस्पर विरोधी हैं। ये दोनों एक साथ उपयुक्त नहीं रह सकते। अतएव केवली जिस समय जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं। जीव के कतिपय प्रदेशों में ज्ञान हो और कतिपय प्रदेशों में दर्शन हो, इस प्रकार एक ही साथ खण्डशः ज्ञान और दर्शन सम्भव नहीं है। सातों नरकपृथ्वियों, अनुत्तरविमान तक के विमानों, ईषत्प्रारभारापृथ्वी, परमाणु, द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में यही सिद्धान्त पूर्वोक्त युक्तिपूर्वक समझ लेना चाहिए।
द्वितीय प्रश्न का तात्पर्य – केवली जिस समय इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अनाकारों (आकारप्रकाररहित रूप) इत्यादि से क्या केवल देखते ही हैं, जानते नहीं हैं?
उत्तर का स्पष्टीकरण – भगवान् इसे 'हाँ ' रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि अनाकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करना दर्शन का कार्य है, ज्ञान का नहीं । ज्ञान का कार्य साकार आदि रूप में ग्रहण करना है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो केवल अनाकार आदि रूप में जब रत्नप्रभादि को सामान्य रूप से ग्रहण करते हैं, तब दर्शन ही होता है, ज्ञान नहीं। ज्ञान तभी होगा, जब वे साकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करें।
अणागारेहिं आदि पदों का विशेषार्थ – (१) अणागारेहिं - अनाकारों से पूर्वोक्त आकार-प्रकारों से रहित रूप से। (२) अहेतूहिं - हेतु-युक्ति आदि से रहित रूप से। (३) अणुवमाहि- अनुपमाओं से - सदशतारहित रूप से। (४) अदिटठंतेहिं - अदष्टान्तों से - दृष्टान्त, उदाहरण आदि के अभाव से। (५) अवण्णेहिं - अवर्णों से अर्थात् शुक्लादि वर्णों एवं गन्ध, रस और स्पर्श से रहित रूप से। (६) असंठाणेहिं - पूर्वोक्त रूप से लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई आदि परिमाण-विशेष रहित रूप में। (८) अपडोयारेहिं - अप्रत्यवतारों से अर्थात् घनोदधि आदि वलयों से व्याप्त होने की स्थिति से रहित रूप में, केवल देखते ही हैं।
निष्कर्ष यह है कि केवली जब केवलदर्शन से रत्नप्रभादि किसी भी वस्तु को देखते हैं तब जानते नहीं केवल देखते ही हैं और जब जानते हैं तब देखते नहीं। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं - केवली .." जाव अपडोयारेहिं पासइ, ण जाणइ।
॥ प्रज्ञापना भगवती का तीसवाँ पश्यत्तापद समाप्त ॥ १. वही, भा. २, पृ.७५४-७५५