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[छत्तीसवाँ समुद्घातपद]
[२४९ मारणान्तिकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं।
जैसे नारक के नारकत्व आदि चौवीस स्व-परस्थानों में अतीत और अनागत मारणान्तिक समुद्घात का कथन किया है, उसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से स्व-परस्थानों में, अतीतअनागत-कालिक मारणान्तिकसमुद्घात का प्ररूपण कर लेना चाहिए। इस प्रकार कुल मिलाकर ये १०५६ आलापक होते हैं।
वैक्रियसमुद्घात का कथन पूर्णरूप से कषायसमुद्घात के समान ही समझना चाहिए। इसमें विशेष बात यह है कि जिस जीव में वैक्रियलब्धि न होने से वैक्रियसमुद्घात नहीं होता उसको वैक्रियसमुद्घात नहीं कहना चाहिए। जिन जीवों में वह सम्भव है, उन्हीं में कहना चाहिए। इस प्रकार वायुकायिकों के सिवाय पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रियसमुद्घात नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें वैक्रियलब्धि नहीं होती। अतएव इनके अतिरिक्त नारकों, भवनपतियों, वायुकायिकों, पंचेन्द्रियतिर्यंचों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में वैक्रियसमुद्घात कहना चाहिए। इसी दृष्टि से यहां कहा गया है- एत्थ विचउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। वैक्रियसमुद्घात में भी चौवीसों दण्डकों की चौवीसों दण्डकों में प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार कुल मिलाकर १०५६ आलापक होते हैं।
तैजससमुद्घात की प्ररूपणा मारणान्तिकसमुद्घात के सदृश जानना चाहिए। किन्तु इसमें भी विशेषता यह है कि जिस जीव में तैजससमुद्घात हो, उसी का कथन करना चाहिए। जिसमें तैजससमुद्घात सम्भव ही न हो, उसका कथन नहीं करना चाहिए। नारकों, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में तैजससमुद्घात सम्भव ही नहीं है, अतएव उनमें कथन नहीं करना चाहिए। पूर्वोक्त प्रकार से किसी दण्डक में विधिरूप से किसी में निषेधरूप से आलापक कहने से कुल १०५६ आलापक होते हैं । ये आलापक चौवीस दण्डकों के क्रम से चौवीसों दण्डकों के कथन के हैं।
आहारकसमुद्घात-नारकों के नारकपर्याय में आहारकसमुद्घात सम्भव न होने से अतीत आहारकसमुद्घात नहीं होता। इसी प्रकार भावी आहारकसमुद्घात भी नहीं होता, क्योंकि नारकपर्याय में जीव को आहारकलब्धि नहीं हो सकती और उसके अभाव में आहारकसमुद्घात भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार असुरकुमारादि भवनपतिपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि, एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक पर्याय में भी भावी आहारकसमुद्घात नहीं होते, क्योंकि इन सब पर्यायों में आहारकसमुद्घात का निषेध है। विशेष यह है कि जब कोई नारक पूर्वकाल में मनुष्यपर्याय में रहा, उस पर्याय की अपेक्षा किसी के आहारकसमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट तीन होते हैं। १ (क) वही, भा. ५
(ख) प्रज्ञापना मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष, भा. ७. पृ. ४४१ २ (क) अभि.रा.कोष. भा ७, पृ. ४४३ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५