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[तईसवाँ कर्मप्रकृतिपद]
करे या शरीर आदि बने, उसे नामकर्म कहते हैं । नामकर्म के अपेक्षाभेद से १०३, ९३ अथवा ४२ या किसी अपेक्षा से ६७ भेद हैं। प्रस्तुत सूत्रों में नामकर्म के ४२ भेद कहे गए हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है। इनका लक्षण इस प्रकार है -
(१) गति-नामकर्म- जिसके उदय से आत्मा मनुष्यादि गतियों में जाए अथवा नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव की पर्याय प्राप्त करे। नारकत्व आदि पर्यायरूप परिणाम को गति कहते हैं। गति के ४ भेद हैं, – नरकगति आदि। इन गतियों को उत्पन्न करने वाला नामकर्म गतिनामकर्म है।
(२) जाति-नामकर्म – एकेन्द्रियादि जीवों की एकेन्द्रियादि के रूप में जो समान परिणति (एकाकार अवस्था) उत्पन्न होती है, उसे जाति कहते हैं। स्पर्शन, रसन आदि पांच इन्द्रियों में से जीव एक, दो, तीन, चार या पांच इन्द्रियाँ प्राप्त करता है और एकेन्द्रियादि कहलाता है, इस प्रकार की जाति का जो कारणभूत कर्म है, उसे जातिनामकर्म कहते हैं।
(३) शरीर-नामकर्म- जो शीर्ण (क्षण-क्षण में क्षीण) होता रहता है, वह शरीर कहलाता है। शरीरों का जनक कर्म शरीरनामकर्म है अर्थात् जिस कर्म के उदय से औदारिक, वैक्रिय आदि शरीरों की प्राप्ति हो, अर्थात् ये शरीर बनें। शरीरों के भेद से शरीरनामकर्म के ५ भेद हैं।
(४) शरीर-अंगोपांग-नामकर्म- मस्तिष्क आदि शरीर के ८ अंग होते हैं । कहा भी है – सीसमुरोयरपिट्ठी-दो बाहू ऊरया य अटुंगा। अर्थात् सिर, उर, उदर, पीठ, दो भुजाएँ और दो जांघ, ये शरीर के आठ अंग है। इन अंगों के अंगुली अदि अवयव उपांग कहलाते हैं और उनके भी अंग जैसे अंगुलियों के पर्व आदि अंगोपांग हैं। जिस कर्म के उदय से अंग, उपांग अदि के रूप में पुद्गलों का परिणमन होता हो, अर्थात् जो कर्म अंगोपांगों का कारण हो, वह अंगोपांगनामकर्म है। यह कर्म तीन ही प्रकार का है, क्योंकि तैजस और कार्मण शरीर में अंगोपांग नहीं होते।
(५) शरीरबन्धन-नामकर्म – जिसके द्वारा शरीर बंधे, अर्थात् जो कर्म पूर्वगृहीत औदारिकादि शरीर और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले औदारिकादि पुद्गलों का परस्पर में, अर्थात् तैजस आदि पुदगलों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न करे, वह शरीरबन्धननामकर्म है।
(६) शरीर-संहनन-नामकर्म - हड्डियों की विशिष्ट रचना संहनन कहलाती है। संहनन औदारिक शरीर में ही हो सकता है, अन्य शरीर हड्डियों वाले नहीं होते। अतः जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधियां सुदृढ़ होती हैं, उसे संहनन नामकर्म कहते हैं।
(७) संघात-नामकर्म – जो औदारिक शरीर आदि के पुद्गलों को एकत्रित करता है अथवा जो शरीरयोग्य पुद्गलों को व्यवस्थित रूप से स्थापित करता है, उसे संघातनामकर्म कहते हैं। इसके ५ भेद हैं।
(८) संस्थान-नामकर्म - संस्थान का अर्थ है – आकार। जिस कर्म में उदय से गृहीत, संघातित और बद्ध औदारिक आदि पुद्गलों के शुभ या अशुभ आकार बनते हैं, वह संस्थाननामकर्म है। इसके ६ भेद हैं।
(९) वर्ण-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर के काले, गोरे, भूरे आदि रंग होते हैं । अथवा जो कर्म