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________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२०५ हैं और आहार करते हैं। (२) कोई कोई जानते तो हैं, किन्तु इन्द्रियपाटव का अभाव होने से देखते नहीं हैं। (३) कोई जानते नहीं, किन्तु इन्द्रियपाटव होने के कारण देखते हैं। (४) कोई मिथ्याज्ञानी होने से अवधिज्ञान के अभाव में जानते नहीं और इनिद्रयपाटव का अभाव होने से देखते भी नहीं पर आहार करते हैं। वैमानिकों में दो भंग- (१) कोई जानते नहीं, देखते नहीं, किन्तु आहार करते हैं । जो मायी-मिथ्यादृष्टिउपपन्नक होते हैं, वे नौ ग्रैवेयक देवों तक पाये जाते हैं, वे अवधिज्ञान से मनोमय आहार के योग्य पुद्गलों को जानते नहीं हैं, क्योंकि उनका विभंगज्ञान उन पुद्गलों को जानने में समर्थ नहीं होता और इन्द्रियपटुता के अभाव के कारण चक्षुरिन्द्रिय से वे देख भी नहीं पाते। (२) जो वैमानिक देव अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे भी दो प्रकार के होते हैं-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक। इन्हें क्रमशः प्रथमसमयोत्पन्न और अप्रथमसमयोत्पन्न भी कह सकते हैं। अनन्तरोपपन्नक नहीं जानते और नहीं देखते हैं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न होने के कारण उनके अवधिज्ञान का तथा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग नहीं होता। परम्परोपपन्नकों में भी जो अपर्याप्त होते हैं, वे नहीं जानते और न ही देखते हैं, क्योंकि पर्याप्तियों की अपूर्णता के कारण उनके अवधिज्ञानादि का उपयोग नहीं लग सकता। पर्याप्तकों में भी जो अनुपयोगवान् होते हैं, वे नहीं जानते, न ही देखते हैं । जो उपयोग लगाते हैं, वे ही वैमानिक आहार के योग्य पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार करते हैं। पांच अनुत्तरविमानवासी देव अमायी-सम्यग्दृष्टिउपपन्नक ही होते हैं और उनके क्रोधादि कषाय बहुत ही मन्दतर होते हैं, या वे उपशान्तकषायी होते हैं, इसलिए अमायी भी होते हैं। चतुर्थ अध्यवसायद्वार २०४७. णेरइयाणं भंते! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता? . गोयमा! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता। ते णं भंते! किं पसत्था अप्पसत्था? गोयमा! पसत्था वि अप्पसत्था वि। [२०४७ प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने अध्यवसान (अध्यवसाय) कहे गए हैं ? [२०४७ उ.] गौतम! उनके असंख्येय अध्यवसान कहे हैं। [प्र.] भगवान् ! (नारकों के) वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त होते हैं ? [उ.] गौतम! वे प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं। २०४८. एवं जाव वेमाणियाणं। [२०४८] इसी प्रकार वैमानिकों तक कथन जानना चाहिए? विवेचन - अध्यवसायद्वार के सम्बन्ध में यत्किंचित् – चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के अध्यवसाय १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४६ (ख) प्रज्ञापना . (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८५१
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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