Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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शक्ति-निरूपण
स्फुटति प्रकाशते अभिव्यज्यते वाऽर्थोऽनेन अस्मादावा इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस तत्त्व से अर्थ का प्रकाशन या अभिव्यक्ति होती है वह 'स्फोट' है । वैयाकरण विद्वान् सार्थक शब्द में दो तत्त्व मानते हैं -एक ध्वनि' तथा दूसरा स्फोट'। 'ध्वनि' को सावयव एवं विनाशी मानते हुए वैयाकरण उसे अर्थाभिव्यक्ति में असमर्थ मानते हैं । उनके अनुसार यह ध्वनि केवल 'स्फोट' को प्रकट कर देती है। उसके पश्चात् 'स्फोट' तत्त्व, या दूसरे शब्दों में 'ध्वनि' रूप शब्द की आत्मा, से अर्थ की अभिव्यक्ति होती है । इस 'स्फोट' का दूसरा नाम 'शब्द' भी है । 'स्फोट' का विस्तृत वर्णन, प्रतिपादन एवं स्वरूप-विश्लेषण वाक्यपदीय के प्रथम (ब्रह्म अथवा आगम) काण्ड में शब्द-ब्रह्म के अद्वितीय द्रष्टा एवं असाधारण मनीषी भत हरि ने बड़ी मार्मिक पद्धति से किया है। स्वयं नागेश भट्ट ने भी अपनी मंजूषा के तीनों ग्रन्थों में 'स्फोट' के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं तथा आचार्य भत हरि का अनुगमन करते हुए शास्त्रीय प्रमाण तथा तर्कों की स्थिर भित्ति पर स्फोट की प्रतिष्ठापना एवं उसका स्वरूप-विवेचन किया है। 'स्फोट' की दृष्टि से यह ध्यान देने योग्य है कि वैयाकरण-सिद्धान्त-मंजूषा तथा वैयाकरण-सिद्धान्त-लधु-मंजूषा इन दोनों ग्रन्थों को हस्तलेखों में स्फोटवाद' कहा गया है। द्र०-इति श्रीमदुपाघ्यायोपनामक-सतीगर्भज-शिवभट्ट-सुत-नागेश भट्ट-कृतो वैयाकरण-सिद्धान्त-मजूषाख्यः स्फोटवादः । यह पंक्ति लघु तथा बृहत् मंजूषा के प्रत्येक हस्तलेख में मिलती है।
यह 'स्फोट' वर्गों से अतिरिक्त तत्त्व होते हुए भी, वर्ण रूप ध्वनियों से अभिव्यक्त हुआ करता है। इसलिये इसकी दूसरी व्युत्पत्ति की जाती है-स्फुटति अभिव्यज्यते वरिति स्फोटः। 'स्फोट' यद्यपि नित्य, निरंश एवं सर्वथा अविभाज्य तत्त्व है तथापि शब्दों के स्वरूप-ज्ञान के उपाय के रूप में अथवा ताकिक बुद्धि के संतोष के लिये कल्पना द्वारा 'स्फोट' में असत्य विभाग मान लिया जाता है । द्र० --
उपायाः शिक्षमारणानां बालानाम् अपलालनाः । असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥ वाप० २.२३८ निर्भागेष्वभ्युपायो वा भागभेदप्रकल्पनम् ॥ वाप० १.६२ पंचकोशादिवत् तस्मात् कल्पनैषा समाश्रिता ।
उपेयप्रतिपत्त्या उपाया अव्यवस्थिताः ॥ वैभूसा०, कारिका सं०६८ वाचकता की दृष्टि से वर्ण, पद प्रादि विभिन्न रूपों में 'स्फोट' को स्वीकार किया गया है। इस कारण 'स्फोट' के वर्णस्फोट, पदस्फोट तथा वाक्यस्फोट ये प्रमुख भेद माने गये । ये भेद पुनः 'जाति' तथा 'व्यक्ति' की दृष्टि से दो दो प्रकार के होते हैं।
'जाति' तथा 'व्यक्ति'---- शब्दार्थ अथवा पदार्थ का विश्लेषण करते हुए कुछ विद्वान् जाति को प्रधान मानते हैं तो कुछ विद्वान् 'व्यक्ति' को। मीमांसक विद्वान् प्रथम कोटि में रखे जा सकते हैं तथा नैयायिक द्वितीय कोटि में । 'जाति' का अभिप्राय है 'सामान्य' अथवा वह 'भाव' (सत्ता) जो अनेक व्यक्तियों में समान रूप से पाया जाता है। इस ‘सामान्य' को ही व्याकरण के 'त्व' या 'तल' प्रत्ययों द्वारा कहा जाता है । जैसे
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