Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
दूसरे (विद्वान्) 'इव' शब्द को 'उपमानता का द्योतक मानते हैं । उपमानता ( का अभिप्राय) है 'उपमान' तथा 'उपमेय' दोनों में रहने वाले 'सामान्य धर्म' के सम्बन्ध से, कुछ न्यून (साधारण) धर्म वाले दूसरे ('उपमेय') का बोधक होना तथा 'उपमेयता' है उस 'सामान्य धर्म' के सम्बन्ध से बोध्य होना ।
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'साधारण धर्म' का सम्बन्ध कहीं (उन प्रयोगों में जहाँ 'साधारण धर्म' का वाचक शब्द सुबन्त पद है) विशेषरण रूप से तथा कहीं (उन प्रयोगों में जहाँ 'साधारण धर्म' का वाचक शब्द तिङन्त या क्रियापद है) विशेष्य रूप से श्रन्वित होता है ।
इस प्रकार 'चन्द्र इव ग्रह लादकं मुखम् (चन्द्र के समान प्रानन्दप्रद मुख ) इत्यादि (प्रयोगों) में " ग्रानन्द देने वाले 'उपमान' - भूत चन्द्र से अभिन्न मुख" यह ज्ञान होता है । 'चन्द्र इव मुखम् ग्राह्लादयति' (चन्द्र के समान मुख
नन्दित करता है) इत्यादि (प्रयोगों) में " उपमान' भूत चन्द्र है 'कर्ता' जिस आनन्द का उससे अभिन्न एवं मुख है 'कर्त्ता' जिसका ऐसा प्रानन्द" यह बोध होता है ! यह (विषय) "उपमानानि सामान्य - वचनै:" इस ( सूत्र ) के भाष्य में स्पष्ट किया गया है ।
परे तु उपमेयत्वम् - यहां 'परे तु' कह कर नागेश ने संभवतः स्व-सम्मत मत ही प्रस्तुत किया है। इस मत में 'इव' को 'सदृश' अर्थ का द्योतक न मानकर, 'उपमानता' का द्योतक माना गया है । 'उपमानता' के इस प्रसंग में 'उपमान', 'उपमेय' तथा 'साधारण धर्म' की भी चर्चा की गई है। 'साधारण धर्म' 'उपमान' तथा 'उपमेध' दोनों में ही रहता है 'उपमान' में उसकी अधिकता होती है तथा 'उपमेय' में कुछ न्यूनता । इस साधारण धर्म' के सम्बन्ध से ही 'उपमान' 'उपमेय' का बोध कराता है तथा 'उपमेय' 'उपमान' द्वारा बोध्य बनता है ।
साधारणधर्म सम्बन्धश्च बोध: - यह 'साधारण धर्म' विशेषरण तथा विशेष्य इन दो भिन्न-भिन्न रूपों में उपस्थित होता है । कहीं वह विशेषण के रूप में दिखाई देता है तो कहीं विशेष्य के रूप में। यदि 'साधारण धर्म', 'तिङन्त' शब्द के द्वारा न कहा जाकर, 'प्रातिपदिक' शब्द के द्वारा कहा गया तो 'साधारण धर्म' विशेषरण के रूप में प्रतीत होगा । जैसे - चन्द्र इव ग्राह्लादकं मुखम्' यहां 'ग्राह्लादकम् ' 'मुखम् ' का विशेषण है, अर्थात् ऐसा 'मुख' जो 'चन्द्र' के समान ' आह्लादक' है । पर यदि 'साधारण धर्म' को 'तिङन्त' शब्द, अर्थात् किसी क्रिया पद, द्वारा कहा गया तो 'साधारण धर्म' विशेष्य के रूप में प्रतीत होता है । जैसे- 'चन्द्र इव मुखम् ग्राह्लादयति' इस प्रयोग में 'आह्लाद' विशेष्य है तथा उसके दो विशेषण हैं- 'मुखकर्तृक ग्राह्लाद तथा 'चन्द्रकर्तृक आहलाद से अभिन्न 'प्रहलाद', अर्थात् ऐसा 'ग्राह्लाद' जिसका 'कर्ता' 'मुख' हैं तथा जो उस प्रहलाद से अभिन्न है जिसका कर्त्ता चन्द्र है ।
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'उपमानानि सामान्यवचनैः" इत्यत्र भाष्ये स्पष्टम् ग्रपने उपर्युक्त कथन की पुष्टि में नागेश ने प्रमारण के रूप में " उपमानानि सामान्यवचनैः " सूत्र के महा० की
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