Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
समासादि-वृत्त्यर्थ
४१३ प्राप्त किया है जिसको वह ग्राम) इत्यादि, 'अषष्ठ्यर्थ बहुव्रीहि' के, उदाहरणों में 'उदक' पद में ही 'लक्षणा' मानी जाती है (पूर्वपद 'प्राप्त' में नहीं)। क्योंकि पूर्वपद ('प्राप्त') के यौगिक होने के कारण (उसमें विद्यमान) धातु 'प्राप्' तथा प्रत्यय ('क्त') और उन (धातु तथा प्रत्यय) के अर्थ के ज्ञान से साध्य होने के कारण 'लक्षणा' वहाँ देर से उपस्थित होगी। इसके अतिरिक्त, "प्रत्यय' (अपने) समीपस्थ पद के अर्थ से अन्वित होने वाले स्वार्थ ('सङख्या' तथा 'कर्म' आदि) का बोध कराते हैं।' इस नियम की अनुकूलता भी ('प्राप्तोदक' के 'उदक' पद में ही 'लक्षणा' मानने में) है ('प्राप्त' पद में 'लक्षणा' मानने में नहीं)।
और 'घट' आदि पदों में (कल्पित 'धातुओं तथा 'प्रत्ययों' से) अतिरिक्त 'शक्ति' की कल्पना विशिष्ट (समुदाय) में ही कल्पित होती है क्योंकि विशिष्ट ('घट' इस प्रकार की प्रानुपूर्वी वाले समुदाय) का ही (घड़ा रूप अर्थ में) संकेत किया, गया है, भले ही ('पाश्रयता' सम्बन्ध से अपर्याप्त रूप में) बोधकता प्रत्येक वर्ग में हो। प्रौर प्रस्तुत ('प्राप्तोदकः' इस प्रयोग) में ('सु' प्रत्यय के) सर्वथा समीप होने के कारण प्रत्ययार्थ के अन्वय की सुविधा के लिये उत्तरपद ('उदक') में 'लक्षणा' की कल्पना की जाती है-यह एक विशेष बात है। 'घट', 'पट' आदि में भी (पूर्व पूर्व वर्गों के तात्पर्य से विशिष्ट) चरम वर्ण की वाचकता अपने को मीमांसक कहने वालों ने (भी) मानी है।
नैयायिकों तथा मीमांसकों को अभिमत व्यपेक्षावाद के स्वरूप की, पूर्वपक्ष के रूप में, यहां विस्तार से चर्चा की गयी है तथा इस पक्ष में उपस्थित होने वाले दोषों का निराकरण करते हुए इसके लाभों का भी प्रदर्शन यहां किया गया है।
न समासे शक्तिः पुरुष इति बोधात्- 'व्यपेक्षावाद' के इस स्वरूप-विवेचन में प्रमुख बात यह कही गयी कि व्यपेक्षावादी समास आदि 'वृत्तियो' में, अवयवों की अर्थवाचिका 'शक्ति' से अतिरिक्त, कोई विशेष 'शक्ति' नहीं मानते । समास-युक्त पदों से जो विशिष्ट अर्थ की प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति, 'व्यपेक्षावाद' में, 'लक्षरणा' वृत्ति का सहारा लेकर, कर ली जाती है । जैसे---'राजपुरुषः' इस समस्त प्रयोग में 'राजन' शब्द का अर्थ, 'लक्षणा' के द्वारा, 'राजा का सम्बन्धी' मान लिया जाता है ('राजन्' शब्द के) 'पदार्थ' ('राजा का सम्बन्धी) में ('पुरुष') पद के अर्थ (पुरुष) का 'अभेद' रूप से सम्बन्ध कर दिया जाता है । इस प्रकार, बिना 'समास' में विशिष्ट 'शक्ति' माने ही, अवयवार्थों का परस्पर सम्बन्ध कर देने से 'राजा का सम्बन्धी पुरुष' इस अभीष्ट अर्थ का बोध हो जाता है।
अतएव इत्युक्तेश्च :- इस प्रकार 'राजन्' आदि अंशों का, 'लक्षणा' के आधार पर, 'राजा का सम्बन्धी' इत्यादि अथं मानने पर एक लाभ यह होता है कि 'राजपुरुषः' इस समास-युक्त प्रयोग में विद्यमान 'राज्ञः' के साथ 'ऋद्धस्य' जैसे किसी विशेषण का सम्धन्ब नहीं हो पाता । इसके दो कारण दिये जा सकते हैं। पहला यह कि 'राजन' शब्द का 'पदार्थ' ('पद' का प्रथ) 'राजा का सम्बन्धी' है न कि केवल 'राजा' । इसलिये “पदार्थः
For Private and Personal Use Only