Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 498
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समासादि-वृत्त्यर्थ इनके अवयवों के अर्थ ही, 'आकांक्षा' आदि के आधार पर परस्पर सम्बद्ध हो कर, विशिष्ट अर्थ का रूप धारण कर लेते हैं। ऊपर यह दिखाया जा चुका है कि 'राजपुरुष:' इत्यादि के 'राजन' यादि ग्रंशों में 'लक्षणा' वृत्ति के द्वारा प्रभीष्ट अर्थ की प्राप्ति किस प्रकार की जा सकती है। ४३७ परन्तु एकार्थीभाव-वादी वैयाकरण विद्वानों का यह कहना है कि 'राजपुरुषः' या 'चित्रगुः ' जैसे कुछ प्रयोगों में 'लक्षणा' वृत्ति के आश्रय से अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति भले ही कर ली जाय परन्तु 'वृत्ति' के अनेक प्रयोगों में 'लक्षणा' वृत्ति के द्वारा काम नहीं चल सकता । 'प्राप्तोदको ग्रामः' इत्यादि, षष्ठी तथा सप्तमी के अर्थ से भिन्न अर्थ वाले, 'बहुव्रीहि समास के अनेक प्रयोग ऐसे हैं जिनमें यदि 'लक्षणा' के आश्रय से अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति का प्रयास किया जाय तो अनेक न्यायों का उल्लङघन होने लगता है । 'प्राप्तोदको ग्राम:' इस प्रयोग का अर्थ है 'वह गाँव जिसमें पानी आ गया है' । यहाँ 'प्राप्तम् उदकं यम्' इस विग्रह वाक्य के अनुसार 'प्राप्तोदकः' का अर्थ हुआ 'यत्' है 'कर्म' जिसमें ऐसी 'प्राप्ति' (क्रिया) का 'कर्ता' उदक" अर्थात् 'जिसे पानी प्राप्त हुआ है' क्योंकि यहाँ 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'आप्' धातु से " गत्यर्थाकर्मक० " ( पा० ३.४.७२) सूत्र के अनुसार 'कर्ता' में 'क्त' प्रत्यय आया है। इसलिये 'प्राप्त' का अर्थ है 'प्राप्ति' क्रिया का 'कर्ता' । 'प्राप्त' पद के इस अर्थ के साथ 'उदक' पद के अर्थ 'जल' का 'अभेद' सम्बन्ध माना गया। इस रूप में 'प्राप्तोदकः' पद के अवयवों से "प्राप्ति के 'कर्ता' से अभिन्न 'उदक' इस अर्थ का बोध हो जाता है परन्तु "उदक है कर्ता' जिसमें तथा 'ग्राम' है 'कर्म' जिसमें ऐसी 'प्राप्ति' रूप क्रिया" इस अभीष्ट तथा अनुभूत अर्थ की प्राप्ति नहीं हो पाती । यदि व्यपेक्षावादियों के अनुसार यहाँ 'उदक' पद की 'उदक - सम्बन्धी ग्राम' इस अर्थ में 'लक्षणा' मानी जाय तो भी 'प्राप्तोदक' पद से "प्राप्ति' के 'कर्ता' से अभिन्न जो 'उदक' तत्सम्बन्धी ग्राम" यही अर्थ प्रकट होगा । अभीष्ट अर्थ -- "उदक' है 'कर्ता' जिसमें ऐसी 'प्राप्ति' का 'कर्म" तब भी प्रकट नहीं हो पाता । अभिप्राय यह है कि 'ग्राम' का बोध 'उदक' के सम्बन्धी के रूप में तो हो जायगा परन्तु 'प्राप्ति' के 'कर्म' के रूप में उसका बोध, 'उदक' पद में 'लक्षरणा' वृत्ति मान कर भी नहीं हो पाता । For Private and Personal Use Only यदि, 'प्राप्त' पद में 'कर्ता' के अर्थ में जो 'क्त' प्रत्यय प्राया है उस 'क्त' प्रत्यय की 'कर्म' के अर्थ में 'लक्षणा' की गयी तो यह कठिनाई उपस्थित होगी कि 'प्राप्त' तथा 'उदक' इन दो 'प्रातिपदिकों' के अर्थों का अभेद सम्बन्ध से अन्वय करना पड़ेगा । क्योंकि 'प्राप्त' तथा 'उदक' दोनों पद समान विभक्ति वाले हैं तथा 'प्रातिपदिक' हैं । इसलिये, “समान - विभक्तिक- नामार्थयोर् श्रभेद एव संसर्ग : " ( समान विभक्ति वाले दो नामार्थी अथवा प्रातिपदिकार्थों में परस्पर प्रभेद सम्बन्ध ही होता है) इस न्याय के अनुसार, 'प्राप्त' तथा 'उदक' पदों में प्रभेद सम्बन्ध मानना होगा । ऐसी स्थिति में 'प्राप्तोदकः' पद का अर्थ होगा "उदक से अभिन्न प्राप्ति क्रिया का 'कर्म" । जबकि इस पद का अभीष्ट वाली जो प्राप्ति क्रिया उसका 'कर्म" । अर्थ है - "उदक में होने

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