Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 479
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४१८ [ 'व्यपेक्षा' - पक्ष का खण्डन ] www.kobatirth.org १. वैयाकरण- सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा यहां (उत्तर के रूप में यह ) कहा जाता है कि - 'समास' में 'शक्ति' न मानने पर, विशिष्ट ( समुदाय) की अर्थवत्ता न होने के कारण, (समास- युक्त पद की ) 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होगी । इसीलिये ('शक्ति' के न होने से पूरे समुदाय को अनर्थक मानते हुए ) " प्रर्थवद् प्रधातुर् ग्रप्रत्यः प्रातिपदिकम् " सूत्र के भाष्य में " 'अर्थवत् ' शब्द (सूत्र में) किस लिये है ? अथवान् अवयवों का समूह ( समुदाय में 'शक्ति' न रहने के कारण ) अनर्थक होता है । (जैसे) दस अनार, छः पूए, कुण्ड, बकरे का चर्म" यह ('अर्थवत्', इस अंश का ) प्रत्युदाहरण दिया गया है । इस रूप में तुम्हारे मत में 'राजन्' तथा 'पुरुष' पदों में से प्रत्येक के अर्थवान् होने पर भी ( पूरे 'राजपुरुष' इस समुदाय की, 'दस अनार' आदि के समान अनर्थक होने के कारण, 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं प्राप्त होगी । २. प्रत्रोच्यते - समासे शक्त्यस्वीकारे विशिष्टस्य अर्थवत्त्वाभावेन प्रातिपदिकत्वं न स्यात्' । श्रत एव "प्रर्थवत् ० " सूत्रे ( पा० १.२.४५ ) भाष्ये "प्रर्थवत्' इति किम् ? श्रर्थवतां समुदायोऽनर्थकः । दश दाडिमानि', षड् प्रपूपाः, कुण्डम्, ग्रजाजिनम्" इति प्रत्युदाहृतम् । एवं च राज-पुरुषपदयोस् त्वन्मते प्रत्येकम् अर्थवत्त्वेऽपि समुदायस्य दशदाडिमादिवद् प्रनर्थकत्वात् प्रातिपदिकत्वाऽनापत्तेः । न च " कृत्तद्धित ० " ( पा० १.२.४६ ) इति सूत्रे 'समास'ग्रहणात् तत्संज्ञेति वाच्यम् । तस्य नियमार्थताया भाष्यकृतैव प्रतिपादितत्वात् । अन्यथा सिद्धि विना नियमाऽयोगात् । अत एव ‘राज्ञः पुरुषः' 'देवदत्तः पचति' इत्यादि वाक्यस्य 'मूलकेन' उपदंशम्' इत्यादेश्च न प्रातिपदिकत्वम् । " कृत्-तद्धित-समासाश्च" इस सूत्र में 'समास' (पद) के ग्रहरण से ('राजपुरुष' आदि की ) वह ( ' प्रातिपदिक') संज्ञा हो जायेगी - यह नहीं कहा जा सकता । इसका कारण यह है कि भाष्यकार ने उस ('समास' पद) की नियमार्थकता का प्रतिपादन किया है । अन्य प्रकार से ( सूत्र में 'समास' पद के बिना ही समासयुक्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस पंक्ति के लिए तुलना करो - वैभूसा० पृ० २८७ ; अत्रोच्यते समासे शक्त्यस्वीकारे तस्य प्रातिपदिकसंज्ञादिकं न स्यात् । तुलना करो - महा० (१.२.४५ पृ०५६-५८) [' अर्थवद्' - ग्रहणं किमर्थम् ?] 'अर्थवद्' इति व्यपदेशाय । • अर्थंवति अनेकपदप्रसंग: । 'अर्थवद्' इति प्रातिपदिकसंज्ञायाम् अनेकस्यापि पदस्य प्रातिपदिकसंज्ञा प्राप्नोति- 'दश दाडिमानि', 'षड् अपूपा:', 'कुण्डम्', 'अजाजिनम्', पललपिण्डः ', अधरोरुकम् एतत् कुमार्या:', 'स्फेयकृतस्य पिता प्रतिशीन:' इति ? समुदायोऽत्र अनर्थक: । ३. ह० - दाडिमा: । ४. ह० - 'मूल केनोपदंशम् इत्यादेश्च' अनुपलब्ध । For Private and Personal Use Only

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