Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा विशेषण नहीं लग सकेंगे क्योंकि "पदार्थः पदार्थेन अन्वेति न तु तद्-एक-देशेन" यह सर्व-सम्मत परिभाषा है। परन्तु 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य में यह लाभ नहीं दिखाई देता।
इस का उत्तर देते हुए यहाँ यह कहा गया है कि 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य में तो 'राजन्' जैसे अवयवभूत पदों का कोई अर्थ ही नहीं है। वे तो 'राजपुरुषः' इस विशिष्ट समुदाय के अर्थ में एकीभूत हो गये हैं। इसलिये अनर्थक होने के कारण, बिना किसी नियम का आश्रय लिये, स्वतः ही 'ऋद्धस्य' जैसे विशेषण 'राजन्' जैसे अवयवभूत पदों के साथ नहीं लगाये जा सकते। इस प्रकार 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य में जो बात स्वतः सिद्ध है उसी का अनुवाद मात्र उपर्युक्त नियम-वाक्यों में किया गया। परन्तु 'व्यपेक्षावाद' में उन नियमों का प्राश्रयण करना ही पड़ता है अर्थात् उसकी की दृष्टि से ये नियम-वाक्य बनाने पड़ते हैं। इतना ही नहीं इस तरह के अन्य अनेक वाक्यों की रचना करनी पड़ती है जिनमें विशेष गौरव तथा विस्तार का दोष होता है जिसकी चर्चा आगे की जायेगी।
["प्रत्यय अपने समीपवर्ती पद के अर्थ से सम्बद्ध स्वार्थ के बोधक होते हैं" इस न्याय को अनुकूलता 'व्यपेक्षावाद' में ही है नैयायिकों के इस कथन का निराकरण)
यत्तु “प्रत्ययानां सन्निहित-पदार्थ-गत-स्वार्थ-बोधकत्वव्युत्पत्तिः” इति तन् न। 'उपकुम्भम्', 'अर्धपिप्पली' इत्यादौ पूर्वपदार्थे विभक्त्यर्थान्वयेन व्यभिचारात् । मम तु “प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वित-स्वार्थ-बोधकत्व-व्युत्पत्त:" विशिष्टोत्तरम् एव प्रत्ययोत्पत्तः, विशिष्टस्यैव
प्रकृतित्वात्, विशिष्टस्यैव अर्थवत्त्वाच्च न दोषः । जो यह कहा गया कि - "प्रत्यय (अपने) अत्यन्त समीप (अव्यवहित पूर्व में रहने वाले) पद के अर्थ से सम्बद्ध स्वार्थ ('सङख्या', 'कर्म' आदि) के बोधक हैं" यह नियम है - वह (ठीक) नहीं है क्योंकि 'उपकुम्भम्' (घड़े के समीप), 'अर्धपिप्पली' (पीपली का प्राधा), इत्यादि (प्रयोगों) में पूवपदों के अर्थ ('समीप' तथा 'अर्थ') में विभक्त्यर्थ का अन्वय होने से (उपयुक्त व्यूत्पत्ति में) व्यभिचार (दोष) है। मेरे ('एकार्थीभाव'-वादी वैयाकरण के) मत में तो, "प्रत्यय (अपनी) 'प्रकृति' के अर्थ में अन्वित होने वाले स्वार्थ के बोधक होते हैं" इस नियम (को मानने) के कारण, विशिष्ट (समुदाय) के बाद ही 'प्रत्यय' की उत्पत्ति होती है। इसलिये विशिष्ट (समुदाय) ही 'प्रकृति' है तथा विशिष्ट ही अर्थवान् है । इस कारण (कोई) दोष नहीं है।
ऊपर 'व्यपेक्षा' पक्ष के प्रतिपादन में, 'प्राप्तोदकः' जैसे प्रयोगों के उत्तरपद में 'लक्षणा' का समर्थन करते हुए, यह कहा गया है कि एक न्याय है-"प्रत्ययाः सन्निहितपदार्थ-गत-स्वार्थ-बोधकाः भवन्ति” अर्थात् प्रत्यय अपने से सर्वथा समीप (अव्यवहित रूप से) पूर्व में विद्यमान पद के अर्थ से अन्वित होने वाले स्वार्थ ('संङ्ख्या ', 'कर्म' आदि) के बोधक
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