Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
प्रकरण के प्रारम्भ में, ऐसे अर्थों का प्रदर्शन किया जा चुका है जो केवल 'वृत्ति' (समास आदि) की अवस्था में ही दिखाई देते हैं ( द्र० - पृ० ४१३-१४) । उन सबका यहाँ 'धर्म' पद के अर्थ में समावेश समझना चाहिये । कात्यायन ने अपनी वार्तिक- “ संख्याविशेषो व्यक्ताभिधानम्, उपसर्जन - विशेषणम्, च- योग : " ( महा० २.१.१. पृ० २० ) - में इन 'धर्मों' की ओर ही संकेत किया है ।
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' एकार्थीभाव' सामर्थ्य में यह माना जाता है कि 'वृत्ति' के प्रयोगों में अवयवार्थ होता ही नहीं । यदि होता भी है तो वह समुदाय के अर्थ में ही अभिन्न रूप से रल मिल जाता है इसलिए, वे वे अभीष्ट 'धर्म' या स्थितियां वहां स्वतः सिद्ध हो जाती हैं- उनके लिये किसी प्रकार के वचन बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः 'व्यपेक्षा' सामर्थ्य के सिद्धान्त की अपेक्षा 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य के सिद्धान्त में विशेष लाघव है । इसीलिये महाभाष्य में इन उपर्युक्त धर्मों को ' एकार्थीभाव- कृत विशेषता' के नाम से प्रस्तुत किया गया है । द्र० - " इमे तर्हि एकार्थीभाव - कृता विशेषाः - ' संख्याविशेषो व्यक्ताभिधानम् उपसर्जन-विशेषणं च योगः " ( महा० २.१.१ पृ० २०-२४) ।
[' व्यपेक्षा' सामर्थ्य में कुछ और दोष ]
व्यपेक्षायां दूषणान्तरम् ग्राह
चकारादि-निषेधोऽथ बहु - व्युत्पत्ति-भञ्जनम् । कर्तव्यं ते न्यायसिद्ध त्वस्माकं तद् इति स्थितिः ॥ ( वैभूसा०, समासशक्तिनिर्णय, कारिका सं० ५) 'घट-पटों' इति द्वन्द्व साहित्य- द्योतक - चकार-निषेधस् त्वया कर्तव्य: । 'प्रादिना' 'घन - श्यामः' इत्यादौ 'इव' शब्दस्य । मम तु साहित्याद्यवच्छिन्ने शक्ति-स्वीकारात् " उक्तार्थानाम् ग्रप्रयोगः" इति न्यायात् तेषाम् अप्रयोगः ।
बहु- व्युत्पत्ति-भञ्जनम् इति प्रषष्ठ्यर्थं बहुव्रीहौ 'प्राप्तोदक:' इत्यादौ पृथक् शक्ति - वादिनां मते 'प्राप्ति-कर्त्रभिन्नम् उदकम्' इत्यादि - बोधोत्तरं तत् सम्बन्धि-ग्रामलक्षरणायाम् अपि 'उदक-कर्तृक-प्राप्ति-कर्म-ग्रामः' इत्यर्थालाभे प्राप्ते, 'प्राप्त' इति 'क्त' प्रत्ययस्य
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