Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 494
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समासादि-वृत्त्यर्थ ४३३ बहूनां वृत्तिधर्माणाम् । लाघवम् : इस अंश में यह कहा गया कि 'व्यपेक्षा' सामर्थ्य को मानते हुए 'वृत्ति' के प्रयोगों में भी यदि अवयवों की ही 'शक्ति' मानी गयी तो केवल 'वृत्ति' में दृष्टिगोचर होने वाले अनेक 'धर्मों' या विशिष्ट स्थितियों की उपपत्ति के लिये अनेक वचन या वार्तिकें बनानी पड़ेंगी। ये 'धर्म' या विशिष्ट स्थितियाँ हैं-'विशेषण', 'लिङ्ग', 'सङ्ख्या' आदि का सम्बन्ध न होना । विशेषणासम्बन्ध -जैसे 'राज्ञः पुरुषः' इस विग्रह वाक्य में 'ऋद्धस्य' जैसे विशेषणों का सम्बन्ध हो सकता है। परन्तु समासावस्था में, 'राजपुरुषः' जैसे प्रयोगों में इन विशेषणों का सम्बन्ध नहीं हो सकता। लिङ्गासम्बन्ध - जैसे 'कुक्कुट्या अण्डम्' या 'मृग्याः क्षीरम्' इत्यादि विग्र वाक्यों में 'कुक्कुट' अधवा 'मृग' इत्यादि शब्दों के साथ स्त्रीलिंग का सम्बन्ध किया जाता है । परन्तु समास कर देने के बाद 'कुक्कुटाण्डम्' तथा 'मृग-क्षीरम्' जैसे प्रयोगों में इन शब्दों के साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग नहीं होता। परन्तु लिङ्ग' के साथ असम्बन्ध रूप यह धर्म सर्वत्र नहीं पाया जाता। सङ्ख्या-असम्बन्ध–'राजपुरुषः' इस समास-युक्त पद के विग्रह वाक्य 'राज्ञः राज्ञोः राज्ञां वा पुरुषः' इत्यादि में अप्रधान 'राजन्' पद संख्या-विशेष से युक्त होता है। परन्तु 'राज-पुरुषः' इस समासावस्था में 'राजन्' के साथ संख्या का सम्बन्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार समासावस्था में संख्या से असम्बन्ध की स्थिति रहती है तथा विग्रह वाक्य में संख्या का सम्बन्ध देखा जाता है। इस तथ्य को पतंजलि ने (महा० २.१.१. पृ० २१ में) निम्न शब्दों में प्रकट किया है- "संख्या-विशेषो भवति वाक्ये'राज्ञः पुरुषः', 'राज्ञोः पुरुषः' 'राज्ञां पुरुषः' इति । समासे न भवति 'राजपुरुषः' इति ।" पतंजलि के इस कथन की व्याख्या करते हुए संख्या-विषयक इस स्थिति को कैय्यट ने निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है-''वाक्ये उपसर्जन-पदानि विभक्त्यर्थाभिधायिस्वात् संख्याविशेषयुक्तं स्वार्थ प्रतिपादयन्ति । समासे त्वन्तर्भूतस्वार्थं प्रधानार्थम् अभिदधति इत्यभेदकत्वसंख्याम् अवगमयन्ति” (महा० प्रदीप टीका २.१.१. पृ० २०) । वस्तुतः समास की स्थिति में संख्या को अविभक्त माना जाता है। इस अविभक्त एवं भेद रहित संख्या की चर्चा करते हुए भर्तृहरि ने कहा है-- यथौषधिरसाः सर्वे मधुन्याहितशक्तयः । अविभागेन वर्तन्ते तां संख्यां तादृशीं विदुः ॥ भेदानां वा परित्यागात् संख्यात्मा स तथाविधः । व्यापाराज्जातिभागस्य भेदापोहेन वर्तते ।। (वाप० ३.१४.१००-१०१) 'व्यपेक्षा' सामर्थ्य में इन धर्मों को बताने के लिये अलग अलग वार्तिकें अथवा इष्टियाँ बनानी पड़ेगी- उन्हें शब्दों द्वारा कहना पड़ेगा। जैसे - विशेषण के अयोग (असम्बन्ध) के लिये “सविशेषणानां वृत्तिन वृत्तस्य वा विशेषणयोगो न" यह वचन कहना पड़ेगा। इसी प्रकार अन्य सभी धर्मों के साथ असम्बन्ध को बताने के लिये भी अलग-अलग वचन कहने पड़ेंगे, जिससे अनावश्यक विस्तार (गौरव) होगा। ऊपर इस For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518