Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 484
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समासादि-वृत्त्यर्थ ४२३ है वहां 'प्रातिपदिक' संज्ञा रूप 'कार्य' भी नहीं होता। जैसे- अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' को अभिन्न मान कर किये जाने वाले 'भू सत्तायाम्' इत्यादि प्रयोगों में विद्यमान 'भू' इस ग्रंश की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होती। यहां 'भू' धातु 'अनुकार्य' है । उस 'भू' धातु के अर्थ का निर्देश करने के लिए उसका अनुकरण 'भू सत्तायाम्' इस वाक्य में किया गया । यहाँ 'अनुकार्य' और 'अनुकरण' को अभिन्न मानते हुए ‘अनुकरण' भूत 'भू' शब्द को अनर्थक माना गया क्योंकि वास्तविक अर्थवत्ता तो 'भू' धातु की है। इस प्रकार अर्थवत्ता रूप 'कारण' के अभाव में 'भू' इस अंश में 'प्रातिपदिक' संज्ञा रूप 'कार्य' भी नहीं दिखायी देता। इस रूप में, जिस तरह धूम रूप 'कार्य' से उसके 'कारण' आग का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार, 'प्रातिपदिक' संज्ञा रूप 'कार्य' से उसके 'कारण' रूप अर्थवत्ता का भी अनुमान सुकर है । अतः यह स्पष्ट है कि समास वाले प्रयोगों के समुदाय में विशिष्ट 'शक्ति' अथवा अर्थवत्ता होती ही है। [व्यपेक्षावादी के एक अन्य कथन का खण्डन] यत्त "पदार्थः पदार्थेन.” इति "वृत्तस्य विशेषणयोगो न" इति वचनद्वयेन 'ऋद्धस्य' इत्यादिविशेषरणान्वयो न भवति, तत्तु समासे एकार्थीभावे स्वीकृतेऽवयवानां निरर्थकत्वेन विशेषणान्वयासम्भवात् फलितार्थ-परम् । युष्माकं तु अपूर्व-वाचनिकम् इति गौरवम् इत्यग्ने वक्ष्यते । जो यह कहा गया कि- "पदार्थ पदार्थ से अन्वित होता है पदार्थ के एक देश से नहीं" अथवा "विशेषण सहित का समास नहीं होता तथा समासयुक्त प्रयोग का विशेषण से सम्बन्ध नहीं होता" इन दोनों वचनों से ('व्यपेक्षा' पक्ष में 'राजपुरुषः' के 'राज्ञः' के साथ) 'ऋद्धस्य' इत्यादि विशेषणों का सम्बन्ध नहीं हो पाता-वह (सब) तो, समास में 'एकार्थी भाव' सामार्थ्य मानने पर, ('राजन्' इत्यादि) अवयवों के निरर्थक होने से (उनके साथ) विशेषरण का सम्बन्ध असम्भव होने के कारण ('एकार्थीभाव' सामर्थ्य मानने वाले) हमारे मत में, स्वतः सिद्ध बात को कहने वाले हैं। परन्तु ('व्यपेक्षा' सामर्थ्य मानने वाले) तुम्हारे मत में इन अपूर्व (जो स्वतः सिद्ध नहीं हैं) बातों को 'वचन' (नियम-वाक्य) बनाकर कहना पड़ेगा। यह गौरव (विस्तार दोष) है इस बात को आगे कहेंगे। ऊपर (द्र० --- पृ० ४१३-१४) 'व्यपेक्षावाद' के समर्थन में यह कहा गया था कि इस मत में एक लाभ यह है कि 'राजपुरुषः' जैस प्रयोगों में 'राजन्' शब्द का, 'लक्षणा' वृत्ति के आधार पर, 'राजा का सम्बन्धी' अर्थ होगा। इसलिए 'राजन्' शब्द के अर्थरूप इस 'पदार्थ' (राजा का सम्बन्धी) के एकदेश (एक भाग) 'राजा' के साथ 'ऋद्धस्य' जैसे For Private and Personal Use Only

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