Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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समासादि-वृत्त्यर्थ
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पदों की प्रातिपदिक' संज्ञा की) सिद्धि के अभाव में ('समास' पद के साथ) नियम का सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसीलिये (उपर्युक्त सूत्र में 'समास' पद के नियामक होने के कारण) 'राज्ञः पुरुषः' (राजा का पुरुष), 'देवदत्तः पचति' (देवदत्त पकाता है) इत्यादि वाक्य की तथा 'मूलकेन उपदंशम्' (मूली से स्वादपूर्वक) इत्यादि (प्रयोगों) की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होती। ___पद के अवयवभूत पदांशों के पारस्परिक अन्वय रूप 'व्यपेक्षा'-सिद्धान्त के खण्डन में एक विशेष हेतु यह यहाँ प्रस्तुत किया गया है कि यदि विशिष्ट समुदाय में अर्थाभिधान की 'शक्ति' नहीं मानी गई तो 'राजपुरुषः' आदि प्रयोगों में 'राज' तथा 'पुरुष' का समुदाय अर्थवान् नहीं होगा। अर्थवत्ता के अभाव में इस प्रकार के समुदायों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होगी। 'प्रातिपादिक' संज्ञा का विधायक सूत्र है-"अर्थवद् अधातुर् अप्रत्ययः प्रातिपदिकम्"। इसका अभिप्राय है-'धातु' तथा 'प्रत्यय' से अतिरिक्त जो अर्थवान् शब्द उनकी 'प्रातिपदिक' संज्ञा होती है । यहां 'अर्थवत्' शब्द में 'अर्थ' शब्द के साथ, प्रशंसा अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय प्रयुक्त है। शब्द की प्रशंसा इस बात में है कि वह 'अभिधा' आदि 'वृत्तियों' के द्वारा किसी अर्थ का बोधक हो। इस प्रकार 'अर्थवत्' इस विशेषण का अभिप्राय यह हुआ कि जो 'वृत्ति' के द्वारा अर्थ का जनक हो ऐसा विशेष्य भूत शब्दस्वरूप। इसलिये यदि 'राजपुरुषः' आदि पूरे समुदाय को विशिष्ट अर्थ का वाचक न माना गया तो वह समुदायभूत शब्दस्वरूप अर्थवान् नहीं होगा। अर्थवत्ता के अभाव में उसकी 'प्रातिपदिक' संज्ञा भी नहीं होगी तथा, 'प्रातिपदिक' संज्ञा के आधार पर होने वाली, 'सु' आदि विभक्तियाँ इन शब्दों के साथ युक्त नहीं हो सकेंगी। इस तरह अनन्त शब्द 'अपद' अथवा असाधु हो जायेंगे।
"अर्थवत्" सूत्रे ..." प्रातिपदिकत्वानापत्तेः-जिस प्रकार 'दश दाडिमानि' इत्यादि समुदाय की, जिसके अवयव तो अर्थवान् हैं पर जो स्वयं अर्थवान् नहीं है, अर्थवत्ता के अभाव में 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होती इसी प्रकार, यदि व्यपेक्षावादियों के अनुसार, केवल 'राजा' तथा 'पुरुष' इन अवयवों को ही सार्थक माना गया, अवयव-विशिष्ट समुदाय को अर्थवान् नहीं माना गया, तो 'राजपुरुषः' इस समुदाय की भी 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होगी। इसी अभिप्राय को बताने के लिये महाभाष्य के तथाकथित अंश को यहाँ उद्घ त किया गया।
न च ...."न प्रातिपदिकत्वम् :- यहां यह कहा जा सकता है कि 'व्यपेक्षावाद' के अनुसार, अर्थवत्ता न होने के कारण, राजपुरुषः' इत्यादि समासयुक्त समुदायों की, "अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्" सूत्र से भले ही 'प्रातिपदिक संज्ञा न हो, 'प्रातिपदिक' संज्ञा के विधायक दूसरे सूत्र "कृत्तद्धितसमासाश्च" से इन पदों की 'प्रातिपदिक संज्ञा हो जायगी। परन्तु यह बात इसलिये मान्य नहीं है कि पतंजलि ने "कृत्तद्धितसमासाश्च" सूत्र के 'समास' पद को नियमार्थक माना है। इस नियमार्थकता का अभिप्राय यह है कि यदि किसी अर्थवान् समुदाय की 'प्रातिपदिक' संज्ञा हो तो केवल समास वाले पदों की ही हो । द्र० ---"अर्थवत्ससमुदायानां समासग्रहणं नियमार्थं भविष्यति समास एव अर्थवतां समुदाय: प्रातिपदिकसंज्ञो भवति नान्यः" (महा १.२.४५)। इस नियामकता के कारण ही 'राज्ञः पुरुषः', 'देवदत्तः पचति' इत्यादि वाक्यों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होती। यहां ध्यान देने की बात यह है कि उपर्युक्त 'समास' पद को नियामक तभी माना जा सकता है
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