Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 478
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समासादि-वृत्त्यर्थ ४१७ साथ ही यह भी मानना चाहिये कि 'ट' में विद्यमान 'अ' का 'घट' अर्थ है तथा इस 'घट' शब्द के अन्य पूर्ववर्ती वर्ण 'अ' के इस 'घट' रूप तात्पर्य के द्योतकमात्र हैं। पर ऐसा क्यों नहीं माना जाता? इम प्रश्न के उत्तर में यहाँ यह कहा गया कि 'घटम्' इत्यादि प्रयोगों में, 'घट' अादि पदों में विद्यमान धातु आदि के अथं से, अतिरिक्त अर्थ की जो कल्पना की जाती है वह 'घ+ ++अ इस अानुपूर्वी वाले विशिष्ट समुदाय के अर्थ के रूप में की जाती है क्योंकि कोश आदि में उस उस विशिष्ट समुदाय के अर्थ के रूप में ही वे वे अर्थ संकेतित हैं। इस प्रकार, यद्यपि 'अधिकरणता' या 'आश्रयता' सम्बन्ध से पद के प्रत्येक वर्ण में बोधकता रहती है फिर भी, उन उन वर्गों के समुदाय में उन उन अर्थों का संकेत होने के कारण उन उन समुदायों को ही उन उन अर्थों का वाचक माना जाता है। प्रकृते च.... 'मीमांसकम्मन्यैर् इत्याहुः-परन्तु प्रकृत या प्रस्तुत उदाहरण 'प्राप्तोदको ग्रामः' में, 'घटम्' इत्यादि प्रयोगों से, भिन्न स्थिति है । 'घट' आदि पदों के अन्तिम वर्ण स्वतंत्र रूप से अर्थ के बोधक दिखाई नहीं देते तथा घ्+अ++अ इस पूरे वर्ण-समुदाय का 'घड़ा' इस विशिष्ट अर्थ में संकेत किया गया है। इसलिये यहाँ 'अम्'प्रत्यय के सर्वथा समीप होने पर भी 'घट' के अन्तिम वर्ण 'अ' को 'घड़ा' अर्थ का वाचक नहीं माना जाता । परन्तु यहाँ 'प्राप्तोदक:' में 'सु' प्रत्यय की अत्यन्त समीपता तो 'उदक' के साथ है ही, साथ ही कोश आदि में 'प्राप्तोदक' इस पूरे समुदाय का किसी विशिष्ट अर्थ में संकेत नहीं किया गया है। इस कारण प्रत्ययार्थ के अन्वय की सुकरता के लिये उत्तरपद 'उदक' में ही 'लक्षणा' की कल्पना उचित है। 'घट' प्रादि पदों की अपेक्षा प्राप्तोदक' जैसे समासयुक्त पदों के उत्तरपद में 'लक्षणा' मानने में प्रत्ययार्थ के अन्वय में अधिक सुकरता है। यही इन 'प्राप्तोदक' आदि समस्त पदों की 'घट' आदि पदों से विशेषता है। और यदि, जैसा कि पूर्वपक्षी का कहना है, 'प्रत्यय' के अत्यन्त समीप होने के कारण 'घट' आदि पदों में भी अन्तिम बर्ण को ही 'घट' अर्थ का वाचक माना जाय तो उसमें भी कोई विशेष आपत्ति नहीं हैं क्योंकि मीमांसक विद्वान्, 'घट' आदि पदों के पूर्व पूर्व के वर्गों को उन उन 'घट' आदि अर्थों का तात्पर्य-ग्राहक मानते हुए पदों के अन्तिम वर्ण को ही 'घट' आदि अर्थ का वाचक मानते हैं। इसलिये उपयुक्त न्याय- "प्रत्ययाः सन्निहित-पदार्थ-गत-स्वार्थ-बोधका भवन्ति'-के अनुसार 'प्राप्तोदकः' इत्यादि प्रयोगों में उत्तरपद में 'लक्षणा' मानने में कोई दोष नहीं पाता। इस प्रकार 'व्यपेक्षावाद' के सिद्धान्त के अनुसार पद के अवयवार्थों का ही 'आकांक्षा' आदि के द्वारा, पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करके उन उन अर्थों का वाचक पद है-यह मानने में भी कोई दोष नहीं है। इस तरह पूर्वपक्ष के रूप में यहाँ 'व्यपेक्षावाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। व्यपेक्षावाद के इस प्रतिपादन में यहाँ परम-लघु-मंजूषा में जिस शब्दावली का प्रयोग किया गया है वह पूरी की पूरी, दो चार शब्दों के अन्तर के साथ, वैयाकरणभूषणसार के समास-शक्ति-निर्णय के प्रकरण में प्रयुक्त शब्दावली से लगभग अभिन्न है (द्र०-वभूसा० पृ० २८२-२८६) । For Private and Personal Use Only

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