Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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समासादि-वृत्त्यर्थ
४१५ नियमन अपने आप हो जायगा -- उसके लिये "विभाषा" सूत्र बनाने की आवश्कता नहीं रहेगी।
नापि ..."न बोधः-- एकार्थीभाववादी विद्वानों का यह विचार है कि जिस प्रकार 'पंज' शब्द में समुदाय में 'अभिधा' वृत्ति मानी जाती है उसके अवयवों में नहीं, उसी प्रकार समास आदि में भी समुदाय में ही 'शक्ति' माननी चाहिये। एकार्थीभाववादी विद्वानों के इस कथन का ही यहाँ, व्यपेक्षावाद की दृष्टि से, खण्डन किया गया है ।
व्यपेक्षावादी का कहना यह है कि 'पंकज' शब्द की तो स्थिति ही और है । जो लोग 'पङ्क+जन्+ड' इस प्रकार के अवयव-विभाग को नहीं जानते उन्हें भी 'पङ्कज' शब्द को सुनने पर 'कमल' अर्थ का बोध हो जाता है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'पंकज' शब्द के अवयवों की 'अभिधा' वृत्ति का ज्ञान न होने पर भी, 'लक्षणा' के द्वारा 'कमल' अर्थ का ज्ञान हो जायगा क्योंकि 'शक्यार्थ' या 'अभिधेयार्थ' के ज्ञान के बिना 'लक्षणा' वृत्ति उपस्थित हो ही नहीं सकती। इसलिये 'पङ्कज' शब्द के अवयवों से विशिष्ट अर्थ (कमल) का ज्ञान 'लक्षणा' द्वारा नहीं हो सकता। इस कारण वहाँ तो 'पङ्कज' शब्द के समुदाय में 'अभिधा' शक्ति मानने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय है ही नहीं।
परन्तु राजपुरुषः' आदि प्रयोगों में तो जब तक इनके अवयवों के अर्थ का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक किसी को भी इनसे 'राजा का पुरुष' इस विशिष्ट अर्थ का ज्ञान नहीं होता। इसलिये उन अवयवों के 'शक्यार्थ' के आधार पर इन प्रयोगों में 'लक्षणा' वृत्ति ही माननी चाहिये न कि समुदाय में 'शक्ति' । इस प्रकार व्यपेक्षावादी नैयायिक आदि विद्वान् 'राजपुरुषः' तथा 'चित्रगुः' इत्यादि प्रयोगों में, 'लक्षणा' वृत्ति के आधार पर, इनके अवयवार्थ से अभिप्रेत अर्थ का प्रकाशन मानते हैं ।
न च 'चित्रगु':... ''व्युत्पत्त्यनुरोधाच्च :-यहाँ 'व्यपेक्षावाद' के सिद्धान्त पर, पूर्वपक्ष के रूप में, यह आक्षेप किया गया है कि सामान्यतया 'राजपुरुषः', 'चित्रगुः' इत्यादि प्रयोगों में 'लक्षणा' वृत्ति के आधार पर भले ही विशिष्ट अर्थ का ज्ञान हो जाय परन्तु 'प्राप्तोदको ग्रामः' जैसे बहुव्रीहि समास के उन प्रयोगों में, जिनमें षष्ठी या सप्तमी विभक्ति का अर्थ नहीं है, 'लक्षणा' वृत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि ऐसा मानने में "समानाधिकरण-नामार्थयोर् अभेदान्वयः" तथा "प्रकृति-प्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यम्" इत्यादि अनेक स्वीकृत न्यायों का विरोध उपस्थित होता है। यहाँ के 'अषष्ठ्यर्थ बहुव्रीहि' पद में निर्दिष्ट 'षष्ठी' पद को सप्तमी का भी उपलक्षक मानना चाहिये क्योंकि सप्तम्यर्थ बहुव्रीहि में भी वे दोष नहीं पाते जिनकी चर्चा यहाँ की जा रही है । इस पूर्वपक्ष की दृष्टि से निम्न कारिका द्रष्टव्य है :--
अषष्ठ्यर्थ-बहुव्रीही व्युत्पत्त्यन्तर-कल्पना । क्लुप्त-त्यागश् चास्ति तत्कि शक्ति न कल्पयेः ॥
वैभूसा० पृ० १७३ इस प्राक्षेप में जो बात कही गयी है उसकी विस्तार से चर्चा स्वयं नागेश ने ही मागे इसी प्रकरण में की है।
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