Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
लकारार्थ-निर्णय
३३५
प्राकृत-धात्वर्थ............फलेति :-नागेश की इन पंक्तियों का अभिप्राय यह है कि यदि 'व्यापार' तथा 'फल' दोनों ही, उच्चरित धातु के अर्थ हों तथा प्रधान धात्वर्थ, ('व्यापार'), से 'फल' उत्पाद्य हो तो उस स्थिति में 'फल' का जो भी आश्रय होगा उसकी 'कर्म' संज्ञा हो जायगी । अतः 'भक्ष' धातु के प्रधान अर्थ भक्षण 'व्यापार' से उत्पाद्य भोजन रूप 'फल', जो 'भक्ष्' धातु का ही अर्थ है, के आश्रय विष तथा इसी प्रकार 'स्पृश्' धातु के प्रधान अर्थ 'स्पर्शन' 'व्यापार' से उत्पाद्य 'स्पर्श' रूप 'फल', जो 'स्पृश्' धातु का ही अर्थ है, के आश्रयभूत तृण दोनों की 'कर्म' संज्ञा की सिद्धि इस दूसरे लक्षण से हो जायगी। प्रथम लक्षण की अपेक्षा इस लक्षण में अन्तर यह है कि पहले में 'उद्देश्यता' पद अधिक है जिसके कारण ही 'विष' तथा 'तृण' जैसे क्रमशः 'दुष्य' तथा 'उदासीन' आश्रयों की 'कर्म' संज्ञा नहीं हो पाती थी। अब इस परिभाषा में उसके न होने के कारण इन शब्दों की 'कर्मता' में कोई बाधा नहीं आती चाहे वे 'कर्ता' की दृष्टि से उद्देश्य हो चाहे न हों, केवल 'फल' के आश्रय होने के कारण ही उनकी 'कर्मता' सिद्ध है। ___यहां नागेश ने अपने लक्षण में 'प्रकृत-धात्वर्थ' अर्थात् फल, के साथ प्रस्तुत या उच्चरित धातु के अर्थ होने की जो बात कही है उसका प्रयोजन यह है कि 'प्रयागात् काशीं गच्छति' जैसे प्रयोगों में 'प्रयाग' की 'कर्म' संज्ञा न हो जाय । प्रस्तुत 'गम्' धातु का अर्थ 'संयोग' यहाँ 'फल' है जिसका आश्रय 'काशी' है न कि 'प्रयाग' । इसलिये उसकी 'कर्म' संज्ञा नहीं होगी।
[द्विकर्मक धातुओं के विषय में विचार]
'दुह ' प्रादीनां व्यापार-द्वयार्थ कत्वपक्षे "अकथितं च" (पा० १.४.५१) इति व्यर्थम् । पूर्वेणैव इष्टसिद्धः । एक-व्यापार-बोधकत्वपक्षे तु सम्बन्ध-षष्ठी-बाधनार्थम । तत्पक्षे 'कर्मसम्बन्धित्वे सति अपादानादि-विशेषाविवक्षितत्वम् अकथित-कर्मत्वम्' इति तृतीय-लक्षणेन 'गां पयो दोग्धि' इत्यादौ ‘गाम्' इत्यस्य कर्मत्व'सिद्धिरि
त्यन्यत्र विस्तरः । __"दुह आदि (धातुओं) के दो दो व्यापार अर्थ हैं' इस पक्ष में "अकथितं च" यह सूत्र अनावश्यक है क्योंकि पहले (सूत्र "कर्तु र ईप्सितमं कर्म") से ही ('गां पयो दोग्धि' इत्यादि प्रयोगों में) इष्ट ('कर्म' संज्ञा) की सिद्धि हो जायगी। परन्तु (इन धातुओं के) एक-व्यापार-बोधकता पक्ष में (“षष्ठी शेषे"; पा० प०२.३.५० से प्राप्त होने वाली) 'सम्बन्ध-षष्ठी को रोकने के लिये ("अकथितं च" सूत्र आवश्यक) है । उस (एक-व्यापारार्थकता के) पक्ष में “कर्म का सम्बन्धी होते हुए 'अपादान' आदि विशेष (कारकों के) द्वारा विवक्षित न होना 'अकथितकर्मता" है इस तृतीय ("अकथितं चं") लक्षण से 'गां पयो दोग्धि' इत्यादि १. ह. सकमर्मत्व-1
For Private and Personal Use Only