Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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कारक-निरूपण
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अपसरण क्रिया से उत्पन्न विभाग का आश्रय होने से दोनों का 'अपादनत्व' तथा अपने में समवाय सम्बन्ध से विद्यमान अपसरण क्रिया का आश्रय होने के कारण दोनों का 'कर्तृत्व' --- इस रूप में दोनों भेड़ों की दोनों ही संज्ञायें हैं। इतना अवश्य है कि दोनों संज्ञानों के लिये अलग अलग दो शब्द हैं --द्विवचनान्त 'मेष' पद 'कर्तृ'-संज्ञक है तथा 'परस्पर' शब्द 'अपादान'-संज्ञक है। इसलिये दोनों में कोई विरोध नहीं है । इसी बात को नागेश ने "किंच मेष-पद-वाच्ययोः"विभागाश्रयत्व-विवक्षा" इन शब्दों में स्पष्ट किया है।
'परस्परस्मान् मेषाव् अपसरतः' इस प्रयोग को भर्तृहरि ने भी वाक्यपदीय की निम्न कारिकानों में स्पष्ट किया है ।
उभावप्यध्र वो मेषौ यद्यप्युभय-कर्मजे । विभागे, प्रविभक्त तु क्रिये तत्र विवक्षिते ॥ मेषान्तर-क्रियापेक्षम् अवधित्वं पृथक्-पृथक् । मेषयोः स्व-क्रियापेक्षं कर्तृत्वं च पृथक्-पृथक् ।
(वाप० ३.७.१४०-४१)
कारिका के 'उभावपि...: विभागे'-- इस अंश का अभिप्राय यह है कि दोनों भेड़ों का कर्म (अपसरण क्रिया) है जनक (उत्पादक) जिनका ऐसे विभाग में दोनों ही भेड़ें अध्रुव (विभाग-जनक क्रिया के प्राश्रय) हैं । इसलिये, (अपसरण) क्रिया के प्राश्रय होने के कारण, यद्यपि दोनों की 'अपादान' संज्ञा न होकर 'कर्तृ संज्ञा प्राप्त होती है। इस प्रकार कारिका के इतने अंश में पूर्व पक्ष रख कर अगले अंश में इसका उत्तर दिया गया है। 'प्रविभक्ते तु पृथक्'- इस अंश में यह कहा गया कि इस उपर्युक्त प्रयोग में अपसरण किया, जो विभाग का जनक है, अपने आश्रयभूत भिन्न भिन्न भेड़ों के कारण, भिन्न भिन्न रूप में ही विवक्षित है । एक भेड़ की अपसरण क्रिया की दृष्टि से दूसरी भेड़ की 'अपादान' संज्ञा तथा दूसरी भेंड़ की अपसरण किया की अपेक्षा पहली भेंड़ की 'अपादान' संज्ञा है। इसी प्रकार दोनों भेड़ों की अपनी अपनी क्रिया की दृष्टि से अलग अलग 'कर्तृ' संज्ञा भी है।
औपाधिकस् तयोर्भेदः उपर्युक्त प्रयोग में 'परस्पर' तथा 'मेष' इन दो शब्दों का प्रयोग होने के कारण यहाँ 'औपाधिक या 'उपाधि'-कृत भेद हो गया है । इस पंक्ति में शब्द को 'उपाधि' कहा गया । 'उपाधि' का अभिप्राय है जो अपने गुणों को दूसरों में सङ्कान्त कर दे - 'उप समीपम् एत्य स्वीकीयं गुणम् अन्यस्मिन् आदधाति' । इसीलिये व्यञ्जक को भी 'उपाधि' कहा जाता है क्योंकि वह व्यङ्ग्य में अपने गुणों को सङ्क्रान्त या प्रतिभासित करा देता है। यहाँ 'परस्पर' तथा 'मेष' शब्द अपनी विभिन्नरूपता के कारण एक ही वस्तु (मेष पशु) में भेद उत्पन्न कर देते हैं, इसलिये उन्हें भी 'उपाधि' कहा गया। इस शब्दरूप 'उपाधि' की भिन्नता के कारण यहाँ एक को ही 'अपादान' तथा 'कर्तृ'संज्ञा मानने में कोई विरोध नहीं उपस्थित होता।
शब्दस्वरूपोपाधि...''शब्दभेदाद् भेदः-शब्दरूप 'उपाधि' की भिन्नता के कारण अर्थ में जो विभिन्न ता उपस्थित होती है उसका भी बोध होता ही है। जैसे-'पात्मा
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