Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 424
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक - निरूपण ३६३ पततोऽश्वात् पतत्यश्ववाहः' जैसे ) उस उस वाक्य में 'मेष' तथा 'अश्व' की 'अपादान' संज्ञा नहीं प्राप्त होती । कुछ प्राचार्य 'अपादान' कारक की परिभाषा यह करते हैं कि जो 'कारक' क्रिया का आश्रय न हो तथा क्रिया-जन्य विभाग का आश्रय हो वह 'अपादान' कारक है । इस परिभाषा को मानने पर 'वृक्षात् पर्णं पतति' जैसे प्रयोगों में दोष नहीं आता क्योंकि 'पर' जैसे शब्दों की, विभाग का प्राश्रय होने पर भी, इसलिये 'अपादान' संज्ञा नहीं हो सकती कि वह पतन क्रिया का आश्रय है । इसलिये 'गति' अर्थात् क्रिया से अनाविष्ट ( रहित ) नहीं है । 'गति' शब्द यहाँ क्रियामात्र के उपलक्षण के रूप में प्रयुक्त है । परन्तु इस परिभाषा में 'अव्याप्ति' दोष है, इस कारण इसे ठीक नहीं माना जा सकता । वह इस प्रकार कि 'परस्परस्मान् मेषाव् अपसरत् : ' (दो भेड़ें एक दूसरे से अलग होती हैं) तथा 'पर्वतात् पततोऽश्वात् पतत्यश्ववाह: ' ( पहाड़ से गिरते हुए घोड़े से घुड़सवार गिरता है) जैसे प्रयोगों में पहले में 'मेष' 'अपसरण' क्रिया के प्राश्रय हैं तथा दूसरे प्रयोग में 'अश्व' 'पतन' क्रिया का प्राश्रय है । इसलिये परिभाषा की शर्त, 'क्रिया का आश्रय न होना, पूरी न होने के कारण इन 'मेष' तथा 'अश्व' की अभीष्ट 'अपादान' संज्ञा नहीं प्राप्त होती । इस प्रकार यह परिभाषा 'अव्याप्ति' दोष से दूषित है । किन आचार्यों की यह परिभाषा है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता । परन्तु न्यायकोश में गदाधर भट्ट के नाम से निम्न परिभाषा मिलती है : - ' क्रियानाश्रयत्वे तज्जन्य- विभागाश्रयत्वम् अपादानत्वम्" जिससे उपर्युक्त परिभाषा की पूरी समता है । [ 'श्रपादान' की उपर्युक्त परिभाषा को मानने वाले किसी विद्वान् के, 'परस्परस्मान् मेषाव् श्रपसरत:' इस प्रयोग-विषयक, वक्तव्य का खण्डन ] यद् ग्रपि " पसरतः' इति सृ' धातुना गति-: त-द्रयस्याप्युपादानाद एक-निष्ठां गतिं प्रति इतरस्य अपादानत्वम् विरुद्धम् " इति तन् न । क्रियाया एकत्वात् । अत एव "न वै तिङन्तान्येकशेषारम्भं प्रयोजयन्ति । क्रियाया एकत्वात्" इति भाष्यं संगच्छते । और जो - 'प्रपसरत:' ( हटते हैं) इस (क्रिया में विद्यमान ) 'सृ' धातु से (दोनों 'भेड़ों' में विद्यमान ) दोनों गतियों का कथन होने के कारण एक ( ' भेंड') में स्थित गति की दृष्टि से दूसरे 'भेंड़' की 'अपादान' संज्ञा मानने में कोई विरोध नहीं है" - यह कथन है वह (भी) ठीक नहीं क्योंकि ('अप' उपसर्ग पूर्वक 'सृ' धातु का वाच्यार्थ अपसरग' ) क्रिया एक है। इसीलिये १. तुलना करो - महा० १.२, ६४, न तिङन्तानि एकशेषारम्भं प्रयोजयन्ति । किं कारणम् ? ... एका हि क्रिया । २. ६० सङ्गच्छते इति । For Private and Personal Use Only

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