Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा
[भावसप्तमी या सत्सप्तमी का अर्थ
ज्ञापक-क्रियाश्रय-वाचकाद् उत्पन्नाया: सत् सप्तम्यास तु क्रियान्तर-ज्ञापकत्वम् अर्थः। तत्र अनिर्णीत-कालिकाया: क्रियायाः निर्णीत-कालिका ज्ञापिका। ‘गोषु दुह्यमानासु गतः' इत्यादौ "गो-निष्ठ-दोहन-क्रिया-ज्ञापित-गमना
श्रयश् चैत्रः" इति बोधः । ज्ञापक (अन्य क्रिया के देश तथा काल के बोधक) क्रिया के प्राश्रय के वाचक (शब्द) से उत्पन्न 'सत्सप्तमी' का तो दूसरी क्रिया की ज्ञापकता अर्थ है। वहाँ जिसके काल (तथा देश) का निश्चित रूप से ज्ञान नहीं है उस क्रिया का निश्चित काल वाली क्रिया बोध कराती है। 'गोषु दुह्यमानासु गतः' (गायों को दुहते समय गया) इत्यादि (प्रयोगों) में 'गौ में विद्यमान दोहन क्रिया के द्वारा ज्ञापित गमन (क्रिया) का आश्रय चैत्र" यह बोध होता है।
पाणिनि ने "यस्य च भावेन भावलक्षणम्" (पा० २.३.३७) सूत्र से जिस सप्तमी का विधान किया है उसी के अर्थ का यहाँ उल्लेख किया गया है। पाणिनि के इस सूत्र का अर्थ है 'जिस क्रिया से दूसरी लक्षित होती है उस (क्रियान्तर-लक्षिका) क्रिया का जो आश्रय उसके वाचक शब्द से सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे- 'गोषु दुह्यमानासु गतः' जैसे प्रयोगों में 'गो' तथा 'दुह्यमान' ये दोनों शब्द दोहन क्रिया के प्रश्रय के वाचक हैं । यह दोहन क्रिया गमन क्रिया के समय का बोध कराती है। इसलिये इन दोनों शब्दों के साथ सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त हुई।
__ इस सूत्र के 'भाव-लक्षणम्' पद में जो 'लक्षण' अंश है उसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए पतंजलि ने कहा है - "न खल्ववश्यं तदेव लक्षणं भवति येन पुनः पुनलक्ष्यते । सकृद् अपि यन् निमित्तत्वाय कल्पते तद् अपि लक्षणं भवति" । अर्थात् - 'लक्षण' शब्द यहाँ व्याप्ति-ज्ञान-सापेक्ष नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि-'जिस प्रकार धूां आग का लक्षक या अनुमापक है उसी तरह यदि कोई क्रिया किसी दूसरी क्रिया को लक्षित या अनुमित कराये तभी इस सूत्र से सप्तमी विभक्ति होगी' ---यह अर्थ 'लक्षण' शब्द का नहीं मानना चाहिये। यदि ऐसा होता तब तो केवल 'उदयति सवितरि तमो नष्टम् (सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो गया), 'धूमे सति वह्निर्भवति' (धुएँ के होने पर आग होती है) जैसे प्रयोगों में ही, इस सूत्र के अनुसार, सत्सप्तमी का प्रयोग होता । 'गोषु दह्यमानास गतः' जैसे प्रयोग, जिनमें इस प्रकार की अनमापिका क्रिया नहीं है, सत्सप्तमी के उदाहरण के रूप में प्रचलित नहीं हो पाते । यहाँ 'व्याप्ति,' अथवा क्रियानुमापकता का भूयोदर्शन नहीं है कि जब जब गायें दुही जाती है तब तब वह जाता ही हो । इस रूप में पतंजलि के कथनानुसार, यहाँ के 'लक्षण' शब्द से वह क्रिया भी अभिप्रेत है जो केवल एक बार ही दूसरी क्रिया का बोध कराती है । इसलिये 'गोषु दुह्यमानासु गतः' जैसे प्रयोगों में भी यह सप्तमी प्रयुक्त होती है। इस प्रकार, इस सूत्र के अर्थ के अनुसार, इस 'सत्सप्तमी विभक्ति का अर्थ 'ज्ञाप्य-ज्ञापक-भाव' अथवा 'दूसरी क्रिया का ज्ञापन कराना' है ।
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