Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
३६८
वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
शाब्द बोध में शब्दस्वरूप भी प्राभासित होता है इस बात की पुष्टि में एक और युक्ति यहां यह दी गयी कि अनुकरण शब्द से अनुकार्य शब्द के स्वरूप का ज्ञान होता है । जिस समय कोई व्यक्ति 'गौ इत्ययम् आह' (यह मनुष्य 'गौ' शब्द का उच्चारण करता है) यह वाक्य कहता है तो सुनने वाले को यही प्रतीत होता है कि 'अमुक व्यक्ति ने 'गौ' पद का उच्चारण किया' । यहाँ 'गौ इति' का 'गौ पद' रूप अर्थ 'गौ' शब्द के ग्रपने रूप के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इस अर्थ के अतिरिक्त वक्ता की ओर कोई भी अन्य विवक्षा इस वाक्य के कथन में नहीं होती। इसलिये यह मानना ही चाहिये कि शब्द का अपना रूप भी शब्द का वाच्य अर्थ है ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तथाहि
श्रनुकार्यत्वम् :- इस प्रसंग में नागेश भट्ट ने 'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' की परिभाषा प्रस्तुत की है। 'अनुकरण' वह वाचक शब्द है जिसका उच्चारण केवल इसलिए किया जाता है कि उससे समान वर्णानुपूर्वी वाले वाच्यभूत अनुकार्य शब्दरूप की प्रतीति हो जाय । जैसे- 'गौ इत्ययम् ग्राह' इस वाक्य में 'गौ' यह 'अनुकरण' शब्द है क्योंकि यहाँ का 'गौ' शब्द तत्सदृश अनुकार्य 'गो शब्द' का बोधक है । इसी प्रकार 'अनुकार्य' वह वाच्यभूत शब्द है जिसका ज्ञान, उसके समान वर्णानुपूर्वी वाले दूसरे, वाचकभूत 'अनुकरण' शब्द द्वारा होता है। जैसे—उपर्युक्त वाक्य में 'गौ इति' से प्रतीत होने वाला गो 'शब्द' । यहाँ 'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' की परिभाषाओं में 'स्व' पद क्रमश: 'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' का बोधक है ।
तत्र .....
निर्देश: - 'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में दो मत प्रचलित हैं । एक मत में दोनों को भिन्न माना जाता है तथा दूसरे मत में दोनों को अभिन्न । प्रथम मत की दृष्टि से 'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' दोनों के पारस्परिक भेद को प्रकट करना चाहते हुए जब वक्ता 'गौ इति' जैसे शब्दों का प्रयोग करता है तो वहाँ 'अनुकरण' शब्द का वाच्य अर्थ होता है 'अनुकार्य' - भूत शब्द-स्वरूप | वाच्यभूत इस 'अनुकार्य' शब्द रूप अर्थ का बोध कराने के कारण ही 'अनुकरण' - भूत शब्द की अर्थवत्ता है क्योंकि 'अनुकार्य' शब्द के अतिरिक्त उस 'अनुकरण' शब्द का कोई भी अन्य अर्थ है ही नहीं । अतः केवल इसी अर्थवत्ता के द्वारा इन 'अनुकररण' शब्दों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा होती है जिसके आधार पर इन शब्दों से 'सु' आदि विभक्तियाँ आती हैं और इस रूप में इन्हें साधु माना जाता है । इस प्रकार 'अनुकरण' शब्द से 'अनुकार्य' शब्द की प्रतीति होती है, इसलिये 'अनुकरण' शब्द में 'अनुकार्य' शब्द को प्रकट करने की 'शक्ति' माननी ही चाहिये ।
'अनुकार्य' तथा 'अनुकरण' में भिन्नता होती है इस भेद-पक्ष का ज्ञापन " भुवो वुग् लुङ् - लिटो: " इत्यादि सूत्रों में प्रयुक्त 'भुव:' जैसे प्रयोगों से होता है । यहां 'भू' यह 'अनुकरण' शब्द है तथा 'भू' धातु 'अनुकार्य' शब्द है । इन दोनों में भिन्नता होने के कारण ही इस 'अनुकरण' - भूत शब्द 'भू' को धातु नहीं माना गया। धातुसंज्ञक न होने तथा अनुकार्य 'भू' धातु के बोधक होने से अर्थवान् होने के कारण ही 'अनुकरण' भूत 'भू' की 'प्रातिपदिक' संज्ञा हो सकी तथा उसके साथ षष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'ङस्' प्रत्यय के संयोजन से 'भुवः' यह रूप निष्पन्न हो सका । यदि इस 'अनुकरण' - भूत 'भू' को 'अनुकार्य' 'भू' धातु से भिन्न माना जाय तो यह भी धातुसंज्ञक हो जाएगा और तब, "प्रर्थवद् -
For Private and Personal Use Only