Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा
नहीं है कि 'एकार्थीभाव' तथा 'व्यपेक्षा' को ही क्रमश: 'जहत्स्वार्था' और 'अजहत्स्वार्था' कहा गया है । इसी कारण लधुमंजूषा में नागेश ने वैयाकरणभूषण का नाम लेकर उसके प्रणेता कौण्डभट्ट के इस कथन का, कि 'जहत्स्वार्था' 'एकार्थीभाव' है तथा 'अजहत्स्वार्था' 'व्यपेक्षा' है, खण्डन किया है। द्र०-“एतेन जहत्स्वार्थतैव एकार्थीभावो भूषणोक्तम् अपास्तम् । अनेन हि एकार्थीभावम् उपक्रम्योक्तेस्तत्रैव पक्षद्वयम् इति लभ्यते” (लघुमंजूषा पृ. १४०६-१०)। "समर्थः पदविधिः' (पा० २.१.१) सूत्र के भाष्य की, कैयट तथा नागेश-कृत, टीकात्रों से भी इस बात की पुष्टि होती है । 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य की व्याख्या में कैयट ने लिखा है-“यत्र पदानि उपसर्जनीभूतस्वार्थानि, निवृत्तस्वार्थानि, प्रधाना
र्थोपादानाद् व्यर्थानि, अर्थान्तराभिधायीनि वा स एकार्थी-भावः” (महा० प्रदीप २.१.१ पृ० ४-५) । स्पष्ट है कि 'जहत्स्वार्था' तथा 'अजहत्स्वार्था' इन दोनों की दृष्टि से ही कयट ने यहां 'एकार्थीभाव' की अनेकविध व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं । 'अजहत्स्वार्था' पक्ष की दृष्टि से “यत्र पदानि उपसर्जनीभूतस्वार्थानि" (जिसमें अवयवभूत पद अप्रधान अर्थ वाले हो जाते हैं) कहा गया । तथा 'जहत्स्वार्था' पक्ष की दृष्टि से 'निवृत्तस्वार्थानि" (जिस में अवभवभूत पदों के अर्थ समाप्त हो जाते हैं। कहा गया । नागेश ने अपनी उद्द्योत टीका में कयट की इन पंक्तियों की विस्तार से व्याख्या की है। परन्तु परमलघुमंजूषा के इस प्रसंग में ग्रन्थकार की स्थिति स्पष्ट न होकर भ्रामक प्रतीत होती है।
'एका भाव' सामर्थ्य-'एकार्थीभाव' सामथ्यं समास प्रादि पांच वृत्तियों में माना जाता है क्योकि इन सब में समुदाय में ही अभीष्ट अर्थ के प्रकाशन की क्षमता होती है, अवयव में नहीं। पाणिनि के "समर्थः पदविधिः" में विद्यमान 'समर्थ' पद का अभिप्राय वैयाकरणों की दृष्टि में 'एका भाव' रूप सामर्थ्य ही है। 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य का अभिप्राय है, पृथक् पृथक् पदों का अपनी विभिन्नार्थकता को छोड़ कर एक अथं वाला हो जाना, पूरे समुदाय के द्वारा एक ही विशिष्ट अर्थ का कहा जाना। इस दृष्टि से उपर्युक्त सूत्र में समर्थ' शब्द का अभिप्राय है - 'संगतार्थ' (अवयवों का सुसंगत अर्थ वाला होना) अथवा 'संसृष्टार्थ' (अवयवों के अर्थों का परस्पर संसृष्ट होना)। द्र०...-"तद् यदा तावद् एकार्थीभावः सामर्थ्य तदा एवं विग्रहः करिष्यते-'संगतार्थः समर्थः', 'संसृष्टार्थः समर्थः' इति" (महा० २.१.१ पृ० ३७)। इस 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य को मानने पर उन उन समासयुक्त पदों से जो जो विशिष्ट अथं प्रकट होते हैं, जिनका प्रकाशन अवयवों से नहीं हो पाता, वे वे अर्थ समुदाय में शक्ति मानने के कारण स्वतः प्रकट हो जायेंगे।
'व्यपेक्षा' सामर्थ्य- 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य के विपरीत, नैयायिक तथा मीमांसक विद्वान् 'व्यपेक्षा' नामक सामर्थ्य मानते हैं । 'व्यपेक्षा' पक्ष में यह माना जाता है कि, जिस प्रकार वाक्य में पद पृथक् पृथक् रहकर अपने-अपने अर्थों को प्रकट करते हैं और उसके बाद उन-उन अर्थों का, 'आकांक्षा' आदि के कारण, परस्पर अन्वय होता है उसी प्रकार, समास आदि 'वृत्तियों में विद्यमान अवयवभूत पद भी पहले अपने-अपने अर्थों को प्रकट करते हैं। उसके बाद उन-उन अर्थों का, 'आकांक्षा' आदि के कारण, परस्पर अन्वय होता है । वस्तुतः ये विद्वान् शब्द को उसी रूप में नित्य नहीं मानते जिस रूप में वैयाकरण मानते हैं। इसलिये 'राजपुरुषः' जैसे शब्दों को स्वरूपतः नित्य न मान कर वे यह मानते हैं कि 'राज्ञः पुरुषः' के स्थान पर ही 'राजपुरुषः' जैसे समास-युक्त प्रयोग होते हैं ।
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