Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा
नाम दिया गया । द्र०-"पद्यपि शब्दान्तरम् एव वृत्तिः । अवयवा वर्णवद् अनर्थकाः । तथापि सादृश्यात् तत्त्वाध्यवसायं पदानाम् आश्रित्य पृथग अर्थानाम् ‘एकार्थीभावः' इत्युक्तम्' (महा० प्रदीप टीका २. १. १ पृ० १७) ।
यह 'एकार्थीभाव'-रूप वृत्ति, कृदन्त, तद्धितान्त, समास, एक-शेष तथा सनाद्यन्त इन पाँच प्रकार के प्रयोगों में विद्यमान है। इसलिये प्राचीन विद्वानों के अनुसार 'वृत्तियां' पांच प्रकार की हैं। परन्तु नवीन विद्वानों के विचारानुसार केवल चार ही वृत्तियां हैं। 'एकशेष' के प्रयोगों में ये विद्वान 'वृत्ति' नहीं मानते क्योंकि वहां अन्य शब्द के अर्थ से अन्वित अपने अर्थ की उपस्थापकता नहीं पायी जाती। द्र०--"वृत्तिश्चतुर्धा-- समास-तद्धित-कृत्-सनाद्यन्तधातु-भेदात्” (लघुमंजूषा, पृ०१४२१) । परन्तु परमलधुमंजूषा में यहाँ पांच प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख किया गया है। द्र० -. "समासादि-पंचसु विशिष्ट एव शक्तिर्नत्ववयवे" ।
वृत्तिद्विधा 'इत्यादावन्त्या- एक अन्य दृष्टि से 'वृत्तियां' दो प्रकार की मानी गई हैं-- 'जहत्स्वार्था' तथा 'अजहतस्वार्था' । 'जहत्स्वार्था' शब्द 'की व्युत्पत्ति की जाती है--'जहति' (त्यजन्ति) स्वानि (पदानि) अर्थ यस्यां वृत्तो सा जहत्स्वार्था', अर्थात प्रयोग में विद्यमान अवयवभूत पद पृथक् पृथक् रूप से प्रकट किये गये अपने अपने अर्थों का जिस 'वृत्ति' में परित्याग कर देते हैं उस 'वृति' का नाम 'जहत्स्वार्था' है। इसी बात को यहां 'जहत्स्वार्था' की परिभाषा में नागेश ने भी कहा है कि "अवयवभूत पदों के अर्थों की अपेक्षा न करते हुए पूरे शब्द-समुदाय के द्वारा एक अभिन्न अर्थ का बोध कराना 'जहत्स्वार्थता' हैं।" जैसे-एक विशेष प्रकार के 'सामगान' के लिये 'रथन्तर' शब्द का प्रयोग। यह प्रयोग 'रथ' शब्द के उपपद होने पर है 'तृ' धातु से, "संज्ञायां भृतृ"तपिदमः” (पा० ३.२.४६) सूत्र के अनुसार, 'खच्' प्रत्यय करके बनाया जा सकता है । परन्तु इन दोनों- 'रथ' शब्द के साथ 'तृ' धातु तथा 'अ' प्रत्ययरूप- अवयवों ने, 'रथन्तर' शब्द में अपने-अपने अर्थ का परित्याग कर दिया है इसलिये 'रथन्तर' शब्द से एक दूसरा ही 'साम-विशेष' रूप अर्थ प्रकट होता है। इसी प्रकार का एक दूसरा उदाहरण यहां 'शुश्रषा' दिया गया है। 'श्रु' धातु के साथ 'सन्' प्रत्यय के योग से स्त्रीलिंग में यह शब्द बना है। परन्तु 'शुश्रूषा' शब्द के 'सेवा' अर्थ में न तो 'श्रु' धातु का 'सुनना' अर्थ है और न ‘सन्' प्रत्यय का 'इच्छा' अर्थ । दोनों ही अवयव अपने-अपने अर्थ का परित्याग करके एक दूसरे ही 'सेवा' अर्थ को प्रस्तुत करते हैं।
_ 'ग्रजहत्स्वार्था' शब्द की व्युत्पत्ति है-"अजहति (न त्यजन्ति) स्वानि (पदानि) अर्थ यस्यां वृत्तौ सा अजहत्स्वार्था", अर्थात् जिस वृत्ति में शब्द के अवयवभूत पद अपने अपने अर्थों का परित्याग किये बिना ही, 'आकांक्षा' आदि के कारण, एक नवीन अर्थ को प्रस्तुत करते हैं उस वृत्ति का नाम 'अजहत्स्वार्था' है। जैसे -'राजपुरुषः' इस प्रयोग में 'राजा' तथा 'पुरुष' शब्द अपने-अपने अर्थों को छोड़े बिना ही 'राज-पुरुष' इस अर्थ को प्रकट करते हैं जिस में दोनों अवयवों के अर्थ समन्वित, संसृष्ट अथवा मिले जुले हैं। नागेश ने यहाँ 'अजहत्स्वार्थता' की जो परिभाषा-("अवयवार्थ से समन्वित समुदायार्थ का बोध कराना 'अजहत्स्वार्थता' है) दी है उसका भी अभिप्राय यही है।
समासादि... अनुभवाभावात् -- यहां 'वृत्तियों' के पाँच प्रकार मानते हुए नागेश ने यह कहा कि इन समास प्रादि पाँचों ही 'वृत्तियों' में अवयवविशिष्ट समुदाय में
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