Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 468
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समासादि-वृत्यर्थ अर्थाभिधान की 'शक्ति' होती है— अवयवों की अपने अपने अर्थों को अलग-अलग रूप से कहने की शक्ति नहीं होती । अवयवों में अपने-अपने अर्थों को प्रकट करने की 'शक्ति' न रहने के कारण ही ' रथन्तरम्', 'सप्तपर्ण' तथा 'शुश्रूषा' इत्यादि 'वृत्ति'विशिष्ट शब्दों में उनके अवयवों के अर्थ का ज्ञान नहीं होता । 'रथन्तरम्' तथा 'शुश्रूषा' की चर्चा ऊपर की जा चुकी है । 'सप्तपर्ण' एक वृक्ष - विशेष का नाम है। सुनने वाले व्यक्ति को 'सप्तपर्ण' शब्द से सीधे ही उस पुष्प - विशेष का ज्ञान हो जाता है - 'सप्त' तथा 'प' ये अवयव अपने-अपने अर्थों को वहाँ प्रकट नहीं करते । ४०७ नागेश ने यहाँ 'जहत्स्वार्था' तथा 'अजहत्स्वार्था' इन दो वृत्तियों की चर्चा जिस रूप में की है उससे यह स्पष्टतः प्रतीत होता है कि वे यहाँ 'जहत्स्वार्थी' को ही 'एकार्थीभाव' मान रहे हैं तथा 'प्रजहत्स्वार्था' को 'व्यपेक्षा' । क्योंकि " समासादि- पंचसु विशिष्टे एवं शक्तिर् न त्ववयवे" ( समास आदि उपर्युक्त पाँचों स्थितियों में विशिष्ट समुदाय में ही अर्थाभिधान की 'शक्ति' होती है भिन्न-भिन्न अवयवों में नहीं) इस रूप में 'एकार्थीभाव' की बात कह कर पुनः नागेश ने 'जहत्स्वार्थी' वृत्ति के ही उदाहरणों को प्रस्तुत किया है तथा उसके तुरन्त पश्चात् 'व्यपेक्षा पक्ष के दोषों को गिनाना आरम्भ कर दिया है। इसके अतिरिक्त यहाँ के "अत एव भाष्ये व्यपेक्षा पक्षम् उद्भाव्य " -- इस पंक्ति में विद्यमान 'ग्रत एव' इस अंश की संगति तब तक नहीं लग पाती जब तक यह न मान लिया जाये कि इसके पूर्व नागेश 'एकार्थीभाव' की चर्चा कर चुके हैं। पर स्थिति यह है कि ऊपर 'जहत्स्वार्था' तथा 'प्रजहत्स्वार्थी इन दो का ही उल्लेख हुआ है, 'एकार्थीभाव' की बात नहीं कही गयी । यह भी विचारणीय है कि "समासादिपंचसु विशिष्टे एवं शक्तिनेत्ववयवे" इस पंक्ति में, जिसमें 'एकार्थीभाव' का नाम लिए बिना ही नागेश ने इस पक्ष की बात कही है, और 'जहत्स्वार्था' की "अवयवार्थनिरपेक्षत्वे सति समुदायार्थबोधिकात्वं जहत्स्वार्थात्वम्" इस परिभाषा में, दोनों में, एक ही बात कही गई है तथा यह सब 'एकार्थीभाव' की विशेषतायें ही हैं। इस प्रकार 'जहत्स्वार्थी ' तथा 'एकार्थीभाव' इन दोनों को पर्याय- प्रथवा एकार्थक - मान लेने पर यहां कोई संगति नहीं उपस्थिति होती, पर दोनों को भिन्न भिन्न मानने पर इस अंश की कोई संगति नहीं लगती । इस लिये टीकाकारों ने इस स्थल की व्याख्या उपर्युक्त स्थिति को मानकर ही की है । द्र० - "एवं च जहत्स्वार्थात्वम् एव एकार्थीभावः । अजहत्स्वार्थात्वं च व्यपेक्षा” (कालिकाप्रसाद शुक्ल की ज्योत्स्ना टीका पृ० २०४) । वैया रणभूषणसार के प्रणेता कौण्डभटट् ने भी इस प्रसंग में यही माना है कि 'जहत्स्वार्था' ही 'एकार्थीभाव' तथा 'अजहत्स्वार्था' ही 'व्यपेक्षा' है । द्र० - " समर्थः पदविधि:' इति सूत्रे भाष्यकारैरनेकधा उक्तष्वपि पक्षेसु जहत्स्वार्थाअजहत्स्वार्थ- पक्षयोरेव एकार्थीभाव-व्यपेक्षारूपयोः पर्यवसानं लभ्यते" ( पृ० २५३-५४), अर्थात् " समर्थः पदविधिः" सूत्र के भाष्य में आचार्य पतंजलि के द्वारा अनेक मतों के प्रस्तुत किये जाने पर भी 'जहत्स्वार्था' तथा 'अजहस्वार्थी' पक्षों का ही पर्यवसान क्रमशः 'एकार्थीभाव' तथा 'व्यपेक्षा' पक्षों के रूप में होता है । For Private and Personal Use Only परन्तु वास्तविकता यह है कि 'सामर्थ्य' के दो भेद हैं- ' एकार्थीभाव' तथा 'व्यपेक्षां' । पुनः 'एकार्थीभाव' के दो भेद हैं- ' जहत्स्वार्था' तथा 'अजहत्स्वार्था' । ऐसा

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