Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 457
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा इस रूप में इन तीनों कारिकानों में इसी तथ्य को स्पष्ट तथा सुपुष्ट किया गया है कि शाब्दबोध, अर्थात् शब्द से प्रकट होने वाले अर्थ-ज्ञान, में विशेषण के रूप में शब्द भी प्रकट होता है। 'विशेषण' अर्थात् अप्रधान वह इसलिये होता है कि अर्थ को प्रकट करने की दृष्टि से शब्द का उच्चारण किया जाता है अतः, परार्थ होने के कारण, उसे गौण अथवा अप्रधान माना जाता है । इसी दृष्टि से भर्तृहरि ने कहा उच्चरन् परतंत्रत्वाद् गुणः कार्यन युज्यते । तस्मात्तदर्थंः कार्याणां सम्बन्धः परिकल्प्यते ।। (वाप० १.६२) उच्चरित होता हुआ शब्द 'परतंत्र' अर्थात् परार्थ होने के कारण, 'गुण' अर्थात् गौरण होता है। इसलिये शब्द 'कार्य' अर्थात् क्रिया से युक्त नहीं होता। इस कारण शब्द के अर्थों के साथ कार्यों अथवा क्रियाओं के सम्बन्ध की कल्पना की जाती है, शब्द के साथ नहीं। अत एव... शब्द प्रतीति:-शाब्दबोध में शब्द का भी ज्ञान विशेषण' (अप्रधान) रूप में होता है इस बात की पुष्टि के लिये नागेश ने एक और हेतु यहाँ प्रस्तुत किया है। वह यह कि यदि शब्दबोध में शब्द के स्वरूप का ज्ञान न होता तो 'विष्णुम् उच्चारय' जैसे प्रयोग न किये जाते । विष्णुरूप अर्थ का उच्चारण हो नहीं सकता इसलिये इस वाक्य का यही अर्थ है कि 'विष्णु' शब्द का उच्चारण करो। अत: यह आवश्यक है कि 'विष्ण' इस शब्द-रूप को भी 'विष्ण, शब्द का अर्थ माना जाय । ऊपर 'शक्ति-निरूपण' में "रामेति द्वयक्षरं नाम मान-भङ गः पिनाकिनः" तथा "वृद्धिरादैच्" आदि अनेक ऐसे उदाहरण दिये जा चुके हैं जो यह बताते हैं कि उन उन शब्दों का अर्थ स्वयं वे वे शब्द-स्वरूप ही हैं। इस प्रसंग में पाणिनि का “स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा" सूत्र भी प्रस्तुत किया जा सकता है जिसकी चरितार्थता तभी सम्भव है यदि शब्द का अपना रूप भी अर्थ ज्ञान के समय भासित हो । अन्यथा, यदि शब्द का अपना रूप उपस्थित ही न हो तो, यह कहना कि "व्याकरण में शब्दसंज्ञा को छोड़ कर अन्य शब्द केवल अपने रूप के ग्राहक या बोधक होते हैं, अर्थ के नहीं" सर्वथा असंगत हो जायगा। द्र० आत्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञेयरूपं च दश्यते । अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपं च प्रकाशते ॥ (वाप० १.५०) यथा प्रयोक्तुः प्राग बुद्धिः शब्देष्वेव प्रवर्तते । व्यवसायो ग्रहोतृणाम् एवं तेष्वेव जायते ।। (वाप० १.५३) अतः यह सिद्ध है कि शब्दों से उपस्थित होने वाला समान प्रानुपूर्वी से युक्त वह वह शब्द-रूप भी 'प्रातिपदिक' शब्द का ही अर्थ है, इस कारण 'प्रातिपदिकार्थ' है। इस रूप में 'प्रातिपदिक' शब्दों के ६ अर्थ हुए। द्र०-"षोढाऽपि क्वचित्-प्रातिपदिकार्थः" (वैभूसा० पृ० २३६) । For Private and Personal Use Only

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