Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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नामार्थ
नाम्ना नाम च यदा अनेन नोपलब्धं भवति तदा पृच्छति "किं भवान् पाह' इति" (महा० १.१.६७) तथा-"अतोऽनितिरूपत्वात् किम् आहेत्यभिधीयते" (वाप० १.५७)।
इसलिये शाब्दबोध, अर्थात् शब्द से होने वाले अर्थज्ञान, में शब्द का अपना रूप 'विशेषण' बनता है । वस्तुतः शब्द तथा अर्थ में अभिन्नता होती है। इसलिये अर्थ के बिना शब्द तथा शब्द के बिना अर्थ रह ही नहीं सकते। ऊपर 'शक्ति-निरूपण' में नागेश ने दोनों की अभिन्नता का विस्तार से उल्लेख किया है। वाक्यपदीय के प्रथम काण्डब्रह्मकाण्ड--में भर्तहरि ने भी इस तथ्य का विस्तार से प्रतिपादन किया है। वहां के इस प्रकरण की ढाई कारिकाओं को नागेश ने यहां प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है।
न सोऽस्ति भासते - यहाँ प्रथम करिका में यह कहा गया है कि सभी प्रकार का ज्ञान शब्द से अनुविद्ध, (आच्छादित अथवा परिवेष्टित) रहता है । अर्थ शब्द से नित्य सम्बद्ध रहता है, इसलिये कोई भी शाब्दबोधात्मक ज्ञान ऐसा नहीं है जिसमें शब्दरूप ('विशेषण' अथवा बोधक) की प्रतीति न होती हो । प्रत्यक्ष आदि ज्ञान में भी, शब्द तथा अर्थ में तादात्म्य या अभेद होने के कारण, शब्द-ज्ञान की स्थिति का आरोप कर लिया जाता है। इस आरोपित शाब्द-ज्ञान को सूचित करने के लिये ही भर्तृहरि ने अपनी इस कारिका में उत्प्रेक्षा वाचक 'इव' का प्रयोग किया है, ऐसा टीकाकारों का विचार है। इसी तरह मूक, बधिर आदि के ज्ञान में भी प्रान्तर शब्द या वक्ता की चेतना, जिसे 'परा वाक' कहा गया है, कारण के रूप में विद्यमान रहती है।
___ ग्राह्यत्वं पृथग अवस्थिते :-यहाँ उद्धत दूसरी कारिका में यह बताया गया है कि जिस प्रकार प्रकाश के दो रूप होते हैं - 'ग्राह्यत्व' तथा 'ग्राहकत्व' अथवा 'प्रकाश्यत्व' और 'प्रकाशकत्व' उसी प्रकार उच्चरित शब्द के भी ये दो रूप होते हैं। जिस प्रकार प्रकाश के द्वारा जहाँ अन्य वस्तुएँ प्रकाशित होती हैं वहीं उसका अपना रूप भी प्रकाशित होता है, उसी प्रकार शब्द से जहाँ अर्थ का ज्ञापन होता है वहाँ उसके अपने रूप का भी ज्ञापन होता है। इसलिये शब्द, प्रकाश के समान, ग्राहक होने के साथ साथ ग्राह्य भी होता है । उसमें ज्ञापकता तथा ज्ञाप्यता, प्रकाशकता तथा प्रकाश्यता ये दोनों ही धर्म होते हैं।
विषयत्वम् । प्रकाश्यते :- यहाँ उद्ध त तीसरे कारिकाध में यह कहा गया कि शब्द से तब तक अथं का प्रकाशन नहीं होता जब तक शब्द का अपना रूप (स्वरूप) भी शब्द का विषय नहीं बन जाता, अर्थात् शब्द के उच्चरित होने पर पहले शब्द का अपना ही रूप इस उच्चरित शब्द का विषय बनता है। शब्दस्वरूप ही ज्ञेय बनता है। इसके बाद उस शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है। इसीलिये अश्रुत शब्द केवल अपनी सत्तामात्र से अर्थ का प्रकाशन नहीं किया करते । यह पूरी कारिका इस प्रकार है :--
विषयत्वम् अनापन्नः शब्दार्थः प्रश्काश्यते । न सत्तयैव तेऽर्थानाम् अगृहीताः प्रकाशकाः ।।
(वाप० १.५६)
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