Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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इत्यादि (प्रविभक्ति (दोनों) शब्द पर्याय हैं ।
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नामार्थ
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प्रयोग ) 'परिनिष्ठित' हैं। 'परिनिष्ठित' तथा 'साधु'
यह बात ऊपर विस्तार से कही गयी है कि अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' के प्रभेद पक्ष में ही 'भू सत्तायाम्' इत्यादि प्रयोग सुसंगत हो पाते हैं जिनमें विभक्ति रहित 'भू' इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया गया है तथा इन प्रयोगों को सर्वथा साधु माना गया । यहां यह विचारणीय है कि, जब 'सु' आदि विभक्तियों के प्रभाव में इन शब्दों की 'पद' संज्ञा नहीं हो सकती तो, इन्हें साधु कैसे माना जाय ? पतंजलि के 'अपदं न प्रयु'जीत' इस कथन के होते हुए, इस प्रकार के विभक्ति रहित 'पद' प्रयोगों को प्रामाणिक कैसे माना जाय ? इसी प्रश्न का उत्तर नागेश ने यहां दिया है।
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श्रपदम् अनाकान्तत्वम् - नागेश का यह कहना है कि 'पद' का अभिप्राय है. 'अपरिनिष्ठित' अर्थात् यदि कोई ऐसा शब्द है जिसमें किसी कार्य का नित्य रूप से विधान करने वाला सूत्र प्रवृत्त तो हो सकता है पर वह प्रवृत्त न हुआ हो तो उसको 'अपरिनिष्ठत' मानना होगा। जिनमें ऐसी स्थिति नहीं है वे 'परिनिष्ठित' हैं । 'परिनिष्ठित' को परिभाषा को नागेश ने अपनी परिष्कृत शब्दावली में प्रस्तुत किया है: "प्रप्रवृत्त - नित्य-विधि - उद्देश्यतावच्छेदक अनाक्रान्तत्वम्" । इसका अभिप्राय यह है कि वे शब्द 'अपरिनिष्ठित' हैं जिनमें नित्य होने वाले कार्य का विधायक कोई सूत्र प्रवृत्त नहीं हुप्रा हो तथा जो उस सूत्र की उद्देश्यता, ( सूत्र की प्रवृत्ति की हेतु), के प्रवच्छेदक धर्म से युक्त हों । पर जो शब्द इस प्रकार के नहीं हैं वे 'परिनिष्ठित' अर्थात् 'साधु' हैं ।
उदाहरण के लिये 'सुधी । उपास्य:' इस स्थिति में 'यण' सन्धि का नित्य रूप से विधान करने वाला सूत्र "इको यण् ग्रचि " ( पा० ६.१.७७ ) प्रवृत्त नहीं हुग्रा, प्रर्थात् उसके अनुसार इस प्रयोग में 'यण' आदेश नहीं किया गया । तथा "इको यरण प्रचि" सूत्र की 'उद्देश्यता' का अवच्छेदक 'धर्म' है "इक्' प्रत्याहार के किसी वर्ग के पश्चात् 'अच्' प्रत्याहार के किसी वर्ग का होना " । इस सूत्र के 'उद्देश्य' अर्थात् लक्ष्यभूत प्रयोग हैं- 'सुधी । उपास्यः' इत्यादि उदाहरण । उनमें पायी जाने वाली सामान्य स्थिति है 'उद्देश्यता' । इस 'उद्देश्यता' का प्रवच्छेदक अर्थात् बोधक अथवा परिचायक 'धर्म' है "इक्' से परे 'अच्' का होना" । उद्देश्यता' का 'प्रवच्छेदक' यह 'धर्म' 'सुधी उपास्य' में विद्यमान है क्योंकि यहां 'ई' के बाद 'उ' वर्ण है। इसलिये इस प्रयोग को 'अपरिनिष्ठित' अथवा 'प्रपद' माना जायगा । ऐसे ही 'अपरिनिष्ठित' शब्दों को 'असाधु ' या 'पद' कहा गया है जिनके प्रयोग का निषेध पतंजलि ने 'प्रपदं न प्रयुजीत' इस कथन में किया है ।
यदि कोई सूत्र किसी
देवदत्तो' 'श्रप्रवृत्त इति : - इन पंक्तियों में 'परिनिष्ठित' की उपर्युक्त परिभाषा में विद्यमान 'प्रवृत्त' शब्द के प्रयोजन पर विचार किया गया है। प्रयोग में प्रवृत्त हो चुका है, अर्थात् अपना कार्य पूरा कर चुका है, तो उसके बाद, भ ही उस प्रयोग में सूत्र की 'उद्देश्यता' का 'अवच्छेदक धर्म' विद्यमान हो, उस प्रयोग को 'अपरिनिष्ठित' नहीं माना जायगा । वह तो 'परिनिष्ठित' प्रयोग ही होगा। जैसे'देवदत्तो भवति' इस प्रयोग में "तिङ् प्रतिङ् : " इस सूत्र के प्रवृत्त हो जाने, अर्थात् 'भवति' इस 'तिन्त' पदको, 'देवदत्त:' इस 'प्रतिङन्त' पद के पश्चात् होने के कारण, सर्वानुदात्त
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