Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 446
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामार्थ ३८५ इस कारिका की व्याख्या करते हुए टीकाकार हेलाराज ने कहा है - "अदो देवदत्तस्य गृहं 'यत्रासो काकः प्रतिवसति' इत्यत्र अनियत-स्वामिक-गृहोपलक्षणाय उपलक्षणभूतस्य काकस्य उत्पतितेऽपि तस्मिन् उपलक्षणस्य कृतत्वात् अध्र वत्वम् अनित्यम् इति तद्-अनादरेणैव तद्-उपलक्षितं गृहम् अभिधीयते 'गृह'-शब्देन यथा, तथा प्रकृत-सम्बधाद् असत्योपाध्युपलक्षितं सत्यम्, उपाधिरूपानादरेण, शब्दैर् अभिधीयते”। ___ अर्थात् जिस प्रकार 'काकवद् देवदत्तस्य गृहम्' इस वाक्य में 'उपलक्षणीभूत काक से विशिष्ट गृह' वाच्यार्थ के रूप में ज्ञात नहीं होता है, अपितु शुद्ध गृह का ही अभिधेयार्थ के रूप में ज्ञान होता है उसी प्रकार असत्य (अव्यवहार्य) 'उपाधि' (जाति) से उपलक्षित सत्य (व्यवहार्य 'व्यक्ति') रूप अर्थ ही, शब्दों के द्वारा, 'उपाधि' या उपलक्षक (जाति) के बिना ही, 'अभिधा' वृत्ति से कहा जाता है । पतंजलि ने "कुत्सिते' (पा० ५.३.७४) सूत्र के भाष्य में एक कारिका उद्धत की है-"स्वार्थम् अभिधाय शब्दों निरपेक्षं द्रव्यम् पाह समवेतम्' । इसका अभिप्राय यह है कि स्वार्थ ('जाति') को कह कर शब्द, उस स्वार्थ से निरपेक्ष होकर, उससे समवेत (सम्बद्ध) द्रव्य ('व्यक्ति') को कहता है। यह तो ठीक है कि यहाँ 'स्वार्थ' पद का अभिप्राय 'जाति' है, परन्तु यहाँ भी भाव यही है कि शब्द अपने अभिधेय 'द्रव्य' ('व्यक्ति') को कहने से पूर्व उपलक्षणीभूत 'जाति' से 'व्यक्ति' को उपलक्षित कर लेता है। यदि 'अभिधाय' पद का "अभिधा' वत्ति से 'कह कर" यह अर्थ किया जाय तो 'क्त्वा' प्रत्यय का अर्थ सर्वथा असङगत हो जाएगा क्योंकि शब्द से होने वाले बोध में ऐसा कोई क्रम प्रतीत नहीं होता जिसमें पहले 'जाति' कही जाय और फिर उसके बाद 'व्यक्ति'। अपने प्राश्रय से रहित 'जाति' का बोध पहले हो भी कैसे सकता है ? नागृहीत....."अप्रसंङ्गभङ्गाच्च :- जाति-शक्ति-वादी मीमांसकों की दृष्टि से 'नागृहीत-विशेषणा बुद्धिर् विशेष्य उपजायते' इस न्याय का जो अर्थ ऊपर दिया गया-कि 'विशेषण', ('जाति'), में शब्द की 'अभिधा' शक्ति है तथा 'विशेष्य', ('व्यक्ति'), में उसकी 'लक्षणा' है-वह इस न्याय का तात्पर्य नहीं है । क्योंकि इस अर्थ की पुष्टि में मीमांसकों ने कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया । वस्तुतः इस न्याय का तात्पर्य तो यह है कि 'जाति' रूप 'विशेषरण' (उपलक्षण) से विशिष्ट (उपलक्षित) 'व्यक्ति' रूप 'विशेष्य' (उपलक्ष्य) का बोध होता है अर्थात् 'जाति' से अनुपलक्षित 'व्यक्ति' का बोध नहीं होता। ___ 'जाति' को शब्द का वाच्यार्थ न मानते हुए भी, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उसे 'व्यक्ति' का उपलक्षक माना जाता है । इसलिये, 'जाति' के द्वारा उसके आश्रयभूत 'व्यक्ति' मात्र के उपलक्षित होने के कारण, शब्द की 'व्यक्ति' में शक्ति मानने पर भी शब्द से उन उन अभिप्रेत सभी, व्यक्तियों का बोध हो जायेगा। अत: "व्यक्त्यन्तरे तदभावेन तद्-बोघाप्रसङ्गात्" यह दोष भी, जो जातिशक्ति-वादियों के द्वारा व्यक्ति-शक्ति-वादियों के पक्ष में दिया गया, निराकृत हो जाता है। तवाह ...."व्यभिचरिष्यति इति :-'व्यक्ति-शक्ति-वाद' के सिद्धान्त के समर्थन में कुमारिल भट्ट के ही एक श्लोक को, नागेशभट्ट ने यहां, प्रमाण के रूप में प्रस्तुत For Private and Personal Use Only

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