Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा परन्तु सूत्र के 'आदि:' शब्द से भी 'बहुत्व' अर्थ की प्रतीति होती ही है। इससे स्पष्ट है कि 'आदि:' पद में 'बहुत्व' अर्थ 'जस्' विभक्ति का न हो कर 'पादि' इस 'प्रातिपदिक' शब्द का है। 'सु' विभक्ति तो केवल इस बात का द्योतन करती है कि यहां 'आदि' शब्द अपने 'पादि' अर्थ के साथ साथ 'बहुत्व' अर्थ का भी वाचक है ।
परन्तु नैयायिकों का यह विचार है कि 'संख्या' की दृष्टि से अनन्त प्रकृतियों'नाम शब्दों'-में 'शक्ति' की कल्पना करने की अपेक्षा थोड़ी सी विभक्तियों में 'संख्या'वाचक 'शक्ति' की कल्पना करने में लाघव है। इस कारण 'संख्या' को 'विभक्ति' का अर्थ ही मानना चाहिये।
एक तीसरा मत यह है कि न तो 'नाम' प्रकृतियां 'संख्या' अर्थ की वाचिका हैं और न 'विभक्तियाँ', अपितु 'विभक्ति'-सहित 'प्रातिपदिक', अर्थात् 'प्रातिपदिक' तथा 'विभक्ति' दोनों का समुदाय, 'संख्या'-युक्त अर्थ का वाचक है। इन दोनों को अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता। इन तीनों ही मतों का सङ्ग्रह भर्तृहरि की निम्न कारिका में किया गया है :---
वाचिका द्योतिका वा स्युर् द्वित्वादीनां विभक्तयः । यद् वा संख्यावतोऽर्थस्य समुदायोऽभिधायकः ।। (वाप० २.१६५)
['कारक' भी 'प्रातिपदिक' शब्द का ही अर्थ है]
कारकम् अपि प्रातिपदिकार्थ इति पंचकः प्रातिपदिकार्थः । ननु अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां प्रत्ययस्यैव तद् वाच्यम् इति चेत् ? न । 'दधि तिष्ठति', 'दधि पश्य' इत्यादौ कर्मादिकारक-प्रतीतेः प्रत्ययं विनापि सिद्धत्वात् । न च लुप्तप्रत्ययस्मरणात् तत्प्रतीतिर् इति वाच्यम्, प्रत्ययलोपम्
अजानतोऽपि नामत एव तत्प्रतीतेः । 'कारक' ('कर्ता' आदि) भी 'प्रातिपदिक' (शब्द) का अर्थ है। इस रूप में ('जाति', 'व्यक्ति', 'लिंग', 'संख्या' तथा 'कारक' ये) पांच 'प्रातिपदिक' के (ही) अर्थ है। यदि यह कहा जाय कि 'अन्वय'-'व्यतिरेक के आधार पर वह ('कारक') प्रत्यय का ही वाच्य (अर्थ) है ('प्रातिपदिक' प्रकृति का अर्थ नहीं है) तो वह उचित नहीं क्योंकि 'दधि तिष्ठति' (दही है), 'दधि पश्य,' (दही को देखो) इत्यादि प्रयोगों में 'कर्म' आदि 'कारकों' का ज्ञान ('सु' आदि प्रथमा विभक्ति के तथा 'अम्' आदि द्वितीया विभक्ति के) प्रत्ययों के (प्रयोग के) बिना भी अनुभव-सिद्ध है। प्रत्यय के लोप आदि के स्मरण होने से (इन प्रयोगों में) उस उस 'कारक' की प्रतीति होती है-यह भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि ('सु' प्रादि) प्रत्यय के लोप को न जानने वाले (व्यक्ति) को भी (केवल) 'नाम' पद से ही उस ('कारक') की प्रतीति हो जाती है ।
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