Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
व्यक्तीनाम् गौरवात् :-ऊपर 'जाति-शक्ति-वाद' के प्रतिपादन में, 'व्यक्तिशक्ति-वाद' के सिद्धान्त पर आक्षेप करते हुए, यह कहा गया है कि 'व्यक्ति' में शब्द की 'शक्ति' मानने पर 'व्यक्तियों', के अनन्त होने के कारण, उतनी ही अनन्त 'शक्तियों' की कल्पना करनी पड़ेगी जिसमें गौरवरूप दोष उपस्थित होगा। इस दोष का निराकरण करते हुए यहां यह कहा गया कि 'व्यक्ति-शक्ति-वाद' के सिद्धान्त में भले ही व्यक्तियाँ अनन्त हों परन्तु केवल 'व्यक्ति' में 'शक्ति' न मान कर, 'जाति' से उपलक्षित 'व्यक्ति' में शब्द की 'शक्ति' मानी जाती है। इसलिये इस पक्ष में भी अनन्त 'शक्तियों' की कल्पना नहीं करनी पड़ती । इसका अभिप्राय यह है कि शब्द का 'शक्य' अथवा अभिधेय अर्थ 'व्यक्ति' है । इसलिये इस 'व्यक्ति'-रूप अर्थ में 'शक्यता' रहती है । इस शक्यता का 'अवच्छेदक', (बोधक या परिचायक) है 'जाति'। इस 'शवयतावच्छेदक' को ही वैयाकरणभूषणसार (पृ० २२०-२२१) में 'सम्बन्धितावच्छेदक' कहा गया है । सभी 'व्यक्तियाँ', 'जाति' रूप एक 'धर्म' से अवच्छिन्न (युक्त हैं) इसलिये एक 'शक्ति' के द्वारा ही उस 'शक्यतावच्छेदक' जाति का बोध हो जायगा । 'जाति' 'व्यक्ति' का उपलक्षक इसलिये उस को 'शक्यता' का अवच्छेदक माना गया।
_ 'जाति' को 'उपलक्षक' मानने का अभिप्राय यह है कि अपने आश्रयभूत सभी 'व्यक्तियों' को 'शक्ति' का विषय बना कर स्वयं 'शक्ति' अथवा बोध का विषय न बनना । जैसे-जब यह कहा जाता है कि सफेद कपड़े वाला देवदत्त है तो सफेद कपड़ों से उपलक्षित देवदत्त का बोध होता है। परन्तु 'देवदत्त' पद से जिस अभिधेय अर्थ का ज्ञान होता है उसमें श्वेतवस्त्रता का ज्ञान नहीं होता । अथवा जब यह कहा जाता है कि 'जिस घर पर कौना बैठा है वह देवदत्त का घर है' तो यहां कौना अपने से उपलक्षित देवदत्त के घर को अन्यों से पृथक् करके उस का बोध करा देता है। इसी प्रकार 'जाति' अपने आथयभूत 'व्यक्ति' का, उसे अन्यों से पृथक करके, बोध करा देती है।
___ लक्ष्यता... — दोषाभावात् :-यह पूछा जा सकता है कि जब 'जाति' से उपलक्षित 'व्यक्ति' में शब्द की 'शक्ति' मानी जाती है तो फिर तो 'जाति' भी शब्द का वाच्य या अभिधेय अर्थ हो जाएगी क्योंकि स्वयं शक्य अथवा वाच्य बन कर ही 'जाति' दूसरे शक्य अर्थ 'व्यक्ति' का उपलक्षण करा सकती है।
___ इसका उत्तर यहाँ यह दिया गया कि जिस प्रकार 'गंगायां घोषः' जैसे प्रयोगों में लक्ष्यभूत अर्थ 'तीर' के 'अवच्छेदक' 'तीरत्व' को लक्ष्य अर्थ नही माना जाता, केवल 'तीर' को ही लक्ष्य अर्थ माना जाता है, अथवा जैसे घट का कारण न होते हुए भी 'दण्डत्व' घट की 'कारणता' का 'प्रवच्छेदक' बनता है उसी प्रकार, यहाँ 'शक्यता' के 'अवच्छेदक' या 'उपलक्षक' 'जाति' को शब्द का शक्यार्थ या वाच्यार्थ मानने की आवश्यकता नहीं है, अर्थात् बिना शक्यार्थ बने भी 'जाति' अपने प्राश्रयभूत 'व्यक्ति' का उपलक्षक बन सकती है। अतः 'जाति' में शब्द की 'शक्ति' मानने की आवश्यकता नहीं है। इस रूप में 'जाति' मे उपलक्षित 'व्यक्ति' में शब्द की शक्ति' मानने के कारण अनन्त 'शक्तियों' की कल्पना करने का दोष भी नहीं आता। भर्तहरि ने अपनी निम्न कारिका में इन्हीं बातों का समर्थन किया है :
प्रध्र वेरण निमित्तेन देवदत्त-गृहं यथा। गृहीतं गृह-शब्देन शुद्धम् एवाभिधीयते ।।
(वाप० ३.२.३)
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