Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरता सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा व्यक्तीनाम् अानन्त्येऽपि शक्यतावच्छेदक-जातेर् उपलक्षगत्वेन तद्-ऐक्येन च तादृश-जात्युपलक्षित-व्यक्तौ शक्तिस्वीकारेण अनन्त-शक्ति-कल्पना-विरहेण गौरवात् । लक्ष्यतावच्छेदक-तीरत्वादिवत् शक्यतावच्छेद कस्य अवाच्यत्वे दोषाभावात। 'नागहीत'० इति न्यायस्य विशेषणविशिष्ट-विशेष्य-बोधे तात्पर्येऽपि त्वद्-उक्त-तात्पर्येमानाभावात् । जातेर् उपलक्षकत्वेन तद्-ग्राश्रय-मकलव्यक्ति-बोधेन व्यक्त्यन्तर-बोधाप्रसङग-भगाच्च । तद् आहश्रानन्त्येऽपि हि भावानाम् एकं क त्वोपलक्षणम् । शब्दः सुकरसम्बन्धो न च व्यभिचारष्यति ।। इति
तंत्रवार्तिक ३.१.६.१२ ।
युक्तं ह्य तत्शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्त-वाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर् वदन्ति सान्निध्यतः सिद्ध-पदस्य वृद्धाः ।। इत्येतेषु शक्ति-ग्राहक-शिरोमणिर् व्यवहारो व्यक्ताव् एव शक्ति ग्राहयति । गवादि-पदेन लोके व्यक्तेर् एव बोधात् ।
(मीमांसकों का) वह (उपर्युक्त कथन) ठीक नहीं है क्योंकि ('गौर अस्ति' जैसे प्रयोगों में मीमांसक-सम्मत अर्थ) 'गोत्वम् अस्ति' (गो जाति है इस अर्थ) के अन्वय-बोध की अनुपपत्ति न होने के कारण 'गौर् अस्ति' इस प्रयोग में ('लक्षणा' वृत्ति के उपस्थित न होने से) 'गौ व्यक्ति' का बोध नहीं होगा। तथा ('व्यक्ति' में शब्द की शक्ति मानते हुए व्यक्तियों के अनन्त होने पर भी 'शक्यता' के अवच्छेदक (अर्थात्) 'जाति के' उपलक्षण होने और उस ('जाति') के एक होने से, उस प्रकार की (उपलक्षणभूत) 'जाति' से (उपलक्षित) 'व्यक्ति' में शब्द की 'शक्ति' मानने तथा (इस रूप में) अनन्त शत्तियों की कल्पना न किये जाने के कारण गौरव (का दोष) नहीं है। ('गंगायां घोषः' जैसे प्रयोगों में) 'लक्ष्यता' के 'अवच्छेदक' (परिचायक) तीरत्व आदि के समान
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