Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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नामार्थ
३८१
गयी है उसके अतिरिक्त सभी 'व्यकियों' में शब्द की 'लक्षणा' मान कर, शब्द की 'लक्षणा' वृत्ति से, सभी 'व्यक्तियों का बोध किया जा सकता है। इस तरह जब दोनों में ही 'लक्षणा' वृत्ति का सहारा लेना पड़ता है तो फिर 'जाति-शक्ति-वाद' को मानने में क्या लाघव है ?
___ इस प्रश्न का उत्तर कौण्डभट्ट ने वैयाकरण भूषणसार में यह दिया है कि शब्द की किसी एक व्यक्ति' में 'शक्ति' मानते हुए दूसरे अन्य व्यक्तियों के लिये जिस 'लक्षणा' वृत्ति का सहारा लिया जाता है उसमें 'स्व-समवेत-प्राश्रयत्व' सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है । 'स्व' अर्थात् कोई भी एक 'व्यक्ति' जैसे पीली गाय । उसमें 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली 'गोत्व जाति' । उसका आश्रय है अन्य श्वेत गौ आदि 'व्यक्तियाँ' । इस प्रकार 'व्यक्ति'-विशेष में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली 'जाति' की आश्रयभूत अन्य व्यक्तियों' का बोध 'गौ' जैसे शब्दों से सम्भव हो पाता है । परन्तु 'जाति' में शब्द की 'शक्ति' मानते हुए 'व्यक्ति' के बोध के लिये जिस 'लक्षणा' वृत्ति का प्राश्रय लिया जाता है उसमें जिस सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है वह है'स्वाश्रयत्व' सम्बन्ध । 'स्व' अर्थात् 'जाति' । उसका आश्रय अर्थात् 'व्यक्ति' । यह 'स्वाश्रयत्व' सम्बन्ध, 'व्यक्ति' पक्ष में कल्पित, 'स्व-समवेत-पाश्रयत्व' सम्बन्ध की अपेक्षा, लघु है-छोटा है। इसलिये 'जातिपक्ष' में लाघव है । द्र०- “एवं हि एकस्याम् एव व्यक्तौ शक्त्यभ्युपगमे व्यक्त्यन्तरे लक्षणायां स्व-समवेताश्रयत्वं संसर्ग इति गौरवम् । जात्या तु सह आश्रयत्वमेव संसर्ग इति लाघवम् । (वैभूसा०, पृ० २१६-१८)।
यहाँ मीमांसकों के इस 'जाति-शक्ति-वाद के सिद्धान्त में 'जाति' पद का अभिप्राय पदार्थ में रहने वाला असाधारण 'धर्म' अथवा शब्द का 'प्रवृत्ति-निमित्त' है, न कि नित्य एवं अनेक में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली प्रसिद्ध 'जाति' । इसीलिये 'आकाशत्व' 'अभावत्व' आदि में 'अव्याप्ति' दोष नहीं है। मीमांसकों के इस सिद्धान्त की दृष्टि से पार्थसारथि मिश्र के निम्नांकित श्लोक द्रष्टव्य हैं : -
प्रानन्त्य-व्यभिचाराभ्यां शक्त्यनेकत्वदोषतः । श्राकृतेः प्रथमज्ञाने तस्या एवाभिधेयता ।। व्यक्त्याकृत्योर् अभेदाच्च व्यवहारोपयोगिता। लिङ्ग-संख्यादि-सम्बन्धः सामानाधिकरण्यधीः ।। सर्व समंजसं ह्येतद् वस्त्वनेकान्तवादिनः । लक्षणा वाभ्युपेतव्या जातेस्तेनाभिधेयता ॥
(शास्त्रदीपिका १.३.१०.३०-३५)
[मीमांसकों के 'जाति-शक्ति-वाद' के सिद्धान्त का खण्डन तथा 'व्यक्ति-शक्ति'-वाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन]
तन् न । 'गोत्वम् अस्ति' इत्यर्थे अन्वयानुपपत्यभावेन
'गौर् अस्ति' इति प्रयोगे व्यक्तिभानानापपत्तः । १. ह०-गोरस्ति । २. ह० में 'प्रयोगे व्यक्तिभानानापत्त:' के स्थान पर 'प्रयोगापत्त:'।
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