Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 435
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७४ वयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा 'राज्ञः पुरुषः' इत्यादि प्रयोगों में भी राजा 'कर्ता' है तथा पुरुष 'सम्प्रदान' है क्योंकि 'राज्ञः पुरुषः' कहने पर यह बोध होता है कि राजा पुरुष को वेतन आदि देता है और पुरुष उसे, अपनी सेवा के बदले में, लेता है। अथवा पुरुष 'कर्ता' है तथा राजा 'कर्म' है क्योंकि 'राज्ञः पुरुषः' कहने पर कभी-कभी यह अर्थ भी प्रतीत होता है कि पुरुष राजा की सेवा करता है। इस तरह राजा को 'कर्ता' और पुरुष को 'सम्प्रदान' मानने अथवा पुरुष को 'कर्ता' और राजा को 'कर्म' मानने पर 'स्व-स्वामि-भाव-सम्बन्ध' बन ही नहीं सकता क्योंकि सम्बन्ध का मूल कारण है उनमें किसी न किसी किया और किसी न किसी 'कारक' की विद्यमानता। जहाँ तक 'स्व-स्वामि-भाव' रूप सम्बन्ध की बात है-कोई भी वस्तु किसी की अपनी सम्पत्ति तभी बनती है यदि उसको खरोदा जाय, या छीना जाय, या मांगा जाय, अथवा किसी अन्य वस्तु के बदले लिया जाय । इन सभी रूपों में 'कम' आदि कारक' होंगे ही। वस्तुतः क्रिया तथा 'कारक' सम्बन्ध के कारण हैं और सम्बन्ध कार्य अथवा फल है। इसलिये 'स्व-स्वाभि-भाव' आदि सभी सम्बन्ध 'कर्म' आदि कारकों से अतिरिक्त हों यह बात सुसङ्गत नहीं प्रतीत होती। द्र० "क: 'शेषो' नाम ? कर्मादिभ्यो येऽन्येऽर्थाः स शेषः । यद्येवं 'शेषो' न प्रकल्पते । नहि कर्मादिभ्योऽन्येऽर्थाः सम्भवन्ति । इह तावद् ‘राज्ञः पुरुषः' इति राजा कर्ता पुरुषः सम्प्रदानम् । 'वृक्षस्य शाखा' इति वृक्षः शाखाया अधिकरणम् । तथा यद् एतत् स्वं नाम चतुभिर् एतत् प्रकारैः भवति-क्रयणाद्, अपहरणाद्, याञ्चायाः, विनिमयात् । अत्र सर्वत्र कर्मादयः सन्ति । एवं तर्हि कर्मादीनाम् अविवक्षा शेषः (महा० २.३.५० पृ० ३०८-१०) । इसलिये यही मानना चाहिये कि 'स्व-स्वामि-भाव-सम्बन्ध' यद्यपि क्रिया तथा कारक पूर्वक ही रहता है फिर भी कारकों से अतिरिक्त रूप में वह षष्ठी विभक्ति के द्वारा विवक्षित होता है। इस प्रकार कारकों से भिन्न रूप में 'सम्बन्ध' का दो प्रकार से कथन पाया जाता है। पहले प्रकार में क्रिया अकथित या अश्रुत रहती है। जैसे 'राज्ञः पुरुषः' आदि प्रयोगों में दान आदि क्रियायें नहीं कही गयीं। यहाँ क्रिया के अश्रुत होने पर क्रिया-कारक-सम्बन्ध के द्वारा एक अन्य 'स्व-स्वामि-भाव सम्बन्ध' की प्रतीति होती है। दूसरे प्रकार में क्रिया उच्चरित या श्रुत रहती है। जैसे-'मातुः स्मरति' (माँ को याद करता है) । इस प्रकार के प्रयोगों में, किया-वाचक शब्द के कथित रहने पर भी, 'कर्म' आदि कारकों की विवक्षा न हो कर माता स्मरण के प्रति विशेषण है-स्मरण 'मातृ-सम्बन्धी है' - यही यहाँ विवक्षित है। ऐसे प्रयोगों में षष्ठी विभक्ति का अर्थ 'विशेष्य-विशेषण-सम्बन्ध' अथवा 'विषय-विषयि-सम्बन्ध' है। इसी अभिप्राय को भर्तृहरि ने निम्न कारिका में संक्षेप में प्रस्तुत किया है :-- सम्बन्धः कारकेभ्योऽन्यः क्रिया-कारक पूर्वकः । श्रुतायाम् अश्र तायां वा क्रियायाम् अभिधीयते ।। (वाप० ३.७.१५६) ['राज्ञः पुरुषः' जैसे प्रयोगों में, सम्बन्ध 'राजा' तथा 'पुरुष' दोनों में है इसलिये, 'राज्ञः' के समान, 'पुरुष' शब्द में भी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग प्राप्त है--इस शङ्का का समाधान ननु सम्बन्धस्य उभय-निष्ठत्वात् 'पुरुष'-शब्दाद् अपि पष्ट्युत्पत्तिर् अस्तु इति चेत् ? न । 'राज-सम्बन्धि-पुरुषः' For Private and Personal Use Only

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