Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
३७०
www.kobatirth.org
वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मजूषा
इसी प्रकार " तत्र च दीयते ० " इस सूत्र के भाष्य में भी यह कहा गया कि 'मास के बीतने पर वेतन के रूप में दिये जाने वाले अन्न की दृष्टि से मास ( महीना ) 'श्रपश्लेषिक ' ग्रधिकरण है | पतंजलि ने ऊपर के इन दो वक्तव्यों में 'औपश्लेषिक' अधिकरण के जो उदाहरण दिये हैं उनके स्वरूप को देखते हुए 'कटे ग्रास्ते' या 'कूपे गर्गकुलम्' जैसे प्रयोगों में 'पश्लेषिक' आधार मानना उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि उपर्युक्त दोनों स्थलों में 'सामीप्य' सम्वन्ध-कृत आधार की प्रतीति नहीं होती । इसीलिये नागेश ने यहाँ कैयट के इस कथन का कि 'कटे प्रास्ते' जैसे प्रयोग 'औपश्लेषिक' अधिकरण के उदाहरण हैं- खण्डन किया है। इस प्रकार, इस ग्रन्थ के प्रणेता की दृष्टि में 'कटे ग्रास्ते ' जैसे प्रयोग विषय सप्तमी या 'वैषयक' अधिकरण के उदाहरण हैं ।
परन्तु भर्तृहरि की कारिका
:
उपश्लेषस्य चाभेदस् तिलाकाशघटादिषु । उपकारात् भिद्यन्ते संयोग समवायिनाम् ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( वाप० ३.७.१४६ )
तथा इसकी हेलाराज - कृत व्याख्या से यह स्पष्ट है कि 'कटे आस्ते' जैसे प्रयोग भर्तृहरि को 'पश्लेषिक' अधिकरण उदाहरण के रूप में ही अभीष्ट हैं । द्र०“संयोगिनः कटस्य सकल-अवयव व्याप्त्या देवदत्तोपश्लेषो न दृश्यते अपितु कतिपय अवयवव्याप्त्या इत्यविशेषाद् 'औपश्लेषिक : ' इति सामान्य-संज्ञाया प्रधारोऽयम् उच्यते” ।
नागेश भट्ट ने लघुमंजूषा में 'उप' समीपे, 'इलेष : ' सम्बन्धः 'उपश्लेषः । तत्कृतम् प्रपश्लेषिकम् " इस प्रसंग को अन्यों के मत के रूप में 'केचित्तु' इस सर्वनाम के द्वारा प्रस्तुत किया है तथा प्रसंग के अन्त में, सम्भवतः भर्तृहरि के मत का समर्थन करते हुए, यह कहा है कि आधार के किसी एक अवयव या कुछ अवयवों में 'आधार की विद्यमानता अथवा व्याप्ति को भी 'उपश्लेष' कहा जाता है । इसके उदाहरण है'कटे श्रास्ते' इत्यादि प्रयोग । द्र० -- "यत् किंचिद् श्रवयवावच्छेदेन आधारस्य आधेयेन व्याप्तिरप्युपश्लेषः । यथा -- ' कटे ग्रास्ते' इति । एवम् एव गंगैकदेशे तरन्तीषु गोषु कूपकदेशे स्थिते गर्ग- कुले 'गंगायां गाव:', 'कूपे गर्ग- कुलम्' इत्यादी बोद्धव्यम्" ( लम० पृ० १३२६-२७) । महाभाष्य ( ६.१.१७२ ) की अपनी उद्योत टीका भी नागेश भट्ट ने इसी बात को निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है :-- “ किंच श्लेषस्य मुख्यस्य सर्वाधारव्याप्तिरूपस्य समीपं यद् आधारीयं यत् किंचिद् ग्रवयव व्याप्तिरूपं तत्कृतम् श्रपश्लेषिक्रम् । यथा - 'कटे ग्रास्ते " ।
यों तो लघुशब्देन्दुशेखर (गुरुप्रसाद - सम्पादित १९३६, पृ० ७७२-७३) में भी नागेश ने पलम० के इस स्थल की बात को ही सर्वथा अभिन्न रूप में कहा है तथा 'कटे प्रास्ते' आदि को 'औपश्लेषिक' का उदाहरण नहीं माना है । परन्तु वहीं मतान्तर के रूप में उसे भी स्वीकार भी कर लिया है । द्र० - -" यद् वा एकदेशावच्छेदेन इषेऽपि श्लेषस्य समीपम् 'उपश्लेषम्' । तत्कृतम् इति व्युत्पत्त्या श्रपश्लेषिकत्वम्इत्यभिप्रायेण तदुदाहरणन्तत्" ।
For Private and Personal Use Only