Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 422
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कारक - निरूपण इस 'औपाधिक' भेद के आधार पर ही यहाँ ('परस्परस्मान् मेषाव् अपसरत:' इस प्रयोग में) 'अपादान' संज्ञा की सिद्धि हो जाने पर ' तत्-तत्-कर्तृ - समवेत ' - इस अंश की ( परिभाषा में) क्या आवश्यकता है ? यदि यह कहा जाय तो वह उचित नहीं है क्योंकि 'पर्वतात् पततोऽश्वात् पतत्यश्ववाहः ' ( पहाड़ से गिरते हुए घोड़े से घुड़सवार गिरता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'अश्व' की 'अपादान' संज्ञा करने के लिये वह ( ' तत्-तत्-कर्तृ समवेत' यह विशेषण) स्वीकार किया गया है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'प्रोपाधिक' भेद के आधार पर परस्परस्मान् मेषाव् ग्रपसरत:' इस प्रयोग में 'अपादान' संज्ञा की सिद्धि हो जाने पर भी परिभाषा में 'तत्-तत्-कर्तृ - समवेत ' इस अंश की आवश्यकता बनी ही रहती है क्योंकि 'पर्वतात् पततोऽश्वात् पतत्यश्ववाह:' जैसे प्रयोगों में 'अश्व' जैसे शब्दों की 'अपादान' संज्ञा तब तक सिद्ध नहीं हो सकती जब तक उपर्युक्त अंश परिभाषा में न हो । ['वृक्षात् पतति' इस प्रयोग के विषय में विचार ] ३६१ 'पर्वतात् पततोऽश्वात् पतत्यश्ववाह:' इस प्रयोग में 'अश्व' सम्बन्धी पतन की दृष्टि से 'पर्वत' की 'अपादान' संज्ञा है तथा 'घुड़सवार' के पतन की दृष्टि से 'अश्व' की अपादान संज्ञा अभीष्ट है । इसी प्रकार 'पर्वत' है अवधि जिसमें ऐसे पतन का 'कर्ता' 'घुड़सवार' है । इसलिये 'अश्व' ('कर्ता' ) में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली पतन क्रिया से उत्पन्न, प्रकृत 'पत्' धातु के प्रावाच्यभूत विभाग का श्राश्रय है 'पर्वत' तथा 'घुड़सवार' ('कर्त्ता') में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली पतन क्रिया से उत्पन्न, प्रकृत 'पत्' धातु श्रवाच्यभूत, विभाग का आश्रय है 'अश्व' । अतः दो भिन्न भिन्न 'कर्त्ता' ('अश्व' तथा 'घुड़सवार' ) की दृष्टि से दोनों 'पर्वत' तथा 'अश्व' की 'अपादान' संज्ञा होगी । यदि परिभाषा में 'तत्-त्त-कर्तृ - समवेत' अंश न हो तो 'अश्व' की 'अपादान' संज्ञा नहीं हो सकती क्योंकि पतन क्रिया यहाँ भले ही एक हो परन्तु, दो बार 'पत्' धातु के द्वारा कथित होने के कारण, 'उपाधि' भेद से वह दो बन गयी है । इसलिये इस 'उपाधि' - भेद के कारण 'अश्व' में समवेत पतन क्रिया का प्राश्रय होने से 'अश्व' 'कर्ता' है परन्तु 'घुड़सवार' में समवेत पतन क्रिया की दृष्टि से वह 'अपादान' है । ननु 'वृक्षात् पर्णं पतति' इत्यादौ तादृश- फलाश्रयत्वात् पर्णस्यापि अपादानत्वं विभागस्य द्विष्ठत्वाद् इति चेत् ? न । परया 'कर्तृ ' -संज्ञया बाधात् । अत एव “प्रपादानम् उत्तराणि कारकाणि बाधन्ते " इति भाष्यं' सङ्गच्छते । For Private and Personal Use Only 'वृक्षात् पर्णं पतति' ( पेड़ से पत्ता गिरता है) इत्यादि (प्रयोगों) में उस प्रकार के 'फल' (पत्ते में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली 'पतन' क्रिया से १. तुलना करो - महा० १४.१ अपादानसंज्ञाम् उत्तराणि कारकाणि बाधन्ते ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518